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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः
३११ क्रोध की प्रबलता आयेगी तो पित्त तीव्र हो जायेगा । काम, शोक और भय से वायु कुपित होगी। मनोविज्ञान में यह सम्मत है-जब वे संवेग प्रबल होते हैं तब शारीरिक परिवर्तन होते हैं। मेडिकल साईंस की दृष्टि से विचार करें-जब-जब संवेग प्रबल होगा, एड्रीनल ग्लैंडस काफी एक्टिव बन जाएगा। आज दोनों सिद्धान्तों को हम मिलायें तो पित्त का अर्थ करना चाहिए एड्रीनेलीन । मेडिकल साईंस की भाषा में एड्रीनल ग्लैंडस से एड्रीनेलीन का स्राव होता है। वह आयुर्वेद की भाषा में पित्त हैं। जैसे ही क्रोध का संवेग तीव्र होगा, एड्रीनल ग्लैंण्ड तत्काल सक्रिय हो जायेगा। एड्रीनल ग्लैंण्ड को सारी शक्ति उसमें लगानी पड़ती है, एड्रीनेलीन का अतिरिक्त स्राव करना पड़ता है। यह अतिरिक्त स्राव बीमारी का कारण बनता है। ० प्रवृत्तेर्निवृतौ वृत्तिशोधनम् ० वृत्तिशुद्धौ प्रवृत्तिन पुनरावृत्तिः
वृत्ति का शोधन होने पर प्रवृत्ति होगी पर पुनरावृत्ति नहीं। ० अमूर्छा समता ० तस्यां सत्यामतीन्द्रियं ज्ञानम
अमूर्छा का विधायक अर्थ है-समता, उसका विकास होने पर अतीन्द्रिय चेतना अपने आप विकसित होती है। ० नियंत्रणं नास्त्यप्रमत्तस्य
जो व्यक्ति अप्रमत्त अवस्था में चला जाता है, उसके लिए नियंत्रण किस काम का। जब तक लेश्या के द्वारा अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण नहीं हो जाता, तब तक नियंत्रण को नहीं छोड़ा जा सकता।
भाव से विचार और विचार से क्रिया। क्रिया स्थूल है, विचार उनसे सूक्ष्म है और भाव उससे भी सूक्ष्म । क्रिया और विचार दोनों स्नायविक प्रेरणाएं हैं। भाव स्नायविक प्रवृत्ति नहीं, शरीर की प्रवृत्ति नहीं है। वह स्थूल शरीर से परे, फिजिकल बॉडी से परे जो लेश्या शरीर या लेश्या तंत्र है, लेश्या की चेतना है, उसकी प्रवृत्ति है, उसकी क्रिया है। शोधन का, रूपान्तरण का यह पहला बिंदु है। वहाँ पहुँचकर हम रूपांतरण कर सकते हैं। ० शब्दात्मका मंत्राः शरीरमनसोः शोधकाः
भावों को बदलने का दूसरा शक्तिशाली साधन है-शब्द। मंत्रों की पद्धति इसकी साक्षी है। मंत्रों के द्वारा भावों को बदला जा सकता है। वह मूल्यवान् साधन है। मन और शरीर के साथ मंत्र का बहुत बड़ा संबंध है। इष्ट का जप करो, मंत्र का जप करो, क्योंकि शुभ भाव और शुभविचार तुम्हारे मन
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