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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः
१. सक्रियता और निष्क्रयता का संतुलन २. दृष्ट्रभाव का विकास ३. मानसिक संतुलन
४. तनाव जनित रोगों का निवारण । ० नानन्तपदार्थप्राप्तिः ० अनन्तशान्त्यवाप्तिस्तु
कोई भी व्यक्ति पदार्थ विकास में अनन्त यात्रा नहीं कर सकता। शान्ति के विकास में अनन्त यात्रा कर सकता है। ० अतीते प्रतिक्रान्ते रूपान्तरणम् ० प्रायश्चित्ते च
जब अतीत का प्रतिक्रमण करने में हमारी अन्तःप्रेरणा जाग जाती है तब परिवर्तन शुरू होता है समग्र जीवन में। इसलिए इस बात को पकड़ें कि अतीत का प्रतिक्रमण और प्रायश्चित किए बिना, शोधन और परिष्कार किए बिना मानसिक ग्रन्थियाँ नहीं खुलती, हजार उपचार करने पर भी परिवर्तन नहीं होता। ० आत्मानुशासने अतिसहजा व्यवस्था ० स्वधर्म इत्येवाहेतुकं कर्तव्यपालनम्
- समाज में रहने वाले स्व की सीमा में चलें। इस स्व-शासन का विकास होने पर समाज में व्यवस्था नहीं होगी किंतु एक विशेष अवस्था होगी। नियम कृत्रिम नहीं होगा, किंतु सहज होगा। प्रेरणा मूल भय नहीं होगा किंतु कर्तव्यनिष्ठा होगी। ० बाह्ये वातावरणेऽनुकूले ध्यानम् ० आन्तरिके च
बाहरी और आन्तरिक दोनों वातावरण अनुकूल होते हैं तब ध्यान का जन्म होता है। ० चित्तं सततं परिवर्तते ० चित्ते परिवर्तिते सति बाह्याभ्यन्तरं परिवर्तते
ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो एक चित्त वाला हो। देश, काल और परिस्थितियों के साथ चित्त बदलता रहता है। जब चित्त बदलता है तब आसपास का सब कुछ बदल जाता है, भीतर का भी बदलता है और बाहर का भी बदलता है।
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