SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ महाप्रज्ञ - दर्शन कष्टों को सहता हुआ भी जी रहा है। इसका मुख्य कारण है - मूर्च्छा । मूर्च्छा में हजारों कष्ट सहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं। एक मूर्च्छा हजारों कष्टों को शांत कर देती है, उनका निवारण कर देती है । यदि ऐसा नहीं होता तो एक दुःखमय, कष्टमय और दारुण संसार में आदमी कभी जी नहीं पाता। उसका जीवित रखने वाली वस्तु है मूर्च्छा । सामाजिक और पारिवारिक वातावरण को सजीव रखने के लिए मूर्च्छा की अनिवार्यता स्वीकार करनी होगी । सामाजिक व्यक्ति मूर्च्छा को सर्वथा छोड़ दे, यह असंभव बात है। किंतु मूर्च्छा के चक्र-व्यूह को तोड़ना जरूरी है। जब तक उसका चक्र-व्यूह चलता रहेगा, तब तक दुःखों का अन्त नहीं होगा । उसकी एक सीमा हो। वह अनन्त न बने, यह अपेक्षित है। मूर्च्छा केवल समाज को चलाने वाली कड़ी के रूप में स्वीकृत हो तो इतना अनर्थ नहीं होता । पर आज उसे अनन्त आकाश प्राप्त है । यह अहितकर है। ध्यान का पुष्ट परिणाम है मूर्च्छा के चक्र का टूटना । • चेतनायां मूर्च्छितायां कर्मतन्त्रं निष्क्रियम् ० न तद्ध्यानम् • भावतंत्रपरिष्कारे मूर्च्छाविलयः O स चेतनया साध्यो न पदार्थेन ध्यान की प्रक्रिया मूर्च्छा को तोड़ने की प्रक्रिया है। जो उपाय चेतना को मूर्च्छित करते हैं वे ध्यान के सही उपाय नहीं हैं। ध्यान में सही उपाय वे ही हैं जो मूर्च्छा को तोड़ते हैं । जितने पदार्थ हैं, उतने उपक्रम हैं। व्यक्ति की चेतना को मूर्च्छित करने वाले सब हमारे कर्म- तंत्र को प्रभावित करते हैं । वे कर्म-तंत्र को निष्क्रिय बना देते हैं, किंतु वे मूर्च्छा को नहीं तोड़ सकते। केवल कर्म-तंत्र को प्रभावित या मूर्च्छित करने से मूर्च्छा का नाश नहीं होता, मूर्च्छा का विलय नहीं होता, मूर्च्छा नहीं टूटती । जब साधक कर्म तंत्र को पार कर भाव-तंत्र का स्पर्श करता है तब मूर्च्छा टूटती है । भाव-तंत्र का स्पर्श केवल चेतना के द्वारा ही किया जा सकता है । वहाँ तक कोई पदार्थ नहीं पहुँच सकता । ० प्रायश्चितं भावपरिवर्तनोपायः भाव को बदलने का अच्छा साधन है प्रायश्चित | • "मिच्छामि दुक्कडं" इति मनसः कायाकल्पसूत्रम् जैसे कायाकल्प का पंचकर्म है- वमन, विरेचन, निरूहण, वस्तिकर्म और स्नेहन वैसे ही अध्यात्म का पंचकर्म है - पडिक्कमामि, निंदामि, गरहामि, आलोएमि; मिच्छामि दुक्कडं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy