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________________ ० ० २८४ महाप्रज्ञ-दर्शन पूर्ण हो जाता है। जहाँ चित्त को अपने आप में केन्द्रित किया जाता है, वही है दर्शन। ० बुद्धिः सान्ता भौतिकी च ० दर्शनमनन्तमाध्यात्मिकञ्च बुद्धि भौतिक वस्तु है और दर्शन आध्यात्मिक । जो आत्मा और उसके अनन्य चैतन्य में विश्वास नहीं करता, उसके लिए दर्शन बुद्धि का पर्यायवाची होता है। बुद्धि सान्त और ससीम होती है, दर्शन अनन्त और असीम । ० परोक्षोऽपूर्णो बुद्धिवादः ० स इन्द्रियमनोजगज्जन्यः ० दर्शनमात्मजगज्जन्यम् बुद्धिवाद अपूर्ण इसलिए होता है कि वह परोक्ष है। दर्शन प्रत्यक्ष होता है इसलिए वह पूर्ण है। बुद्धिवाद की उत्पत्ति इन्द्रिय और मन के जगत् में होती है, जो स्वयं चैतन्यमय नहीं हैं बल्कि चैतन्य के वाहक हैं। दर्शन की उत्पत्ति आत्मिक जगत् में होती है, जो कि स्वयं चैतन्यमय है। ० इन्द्रिय-मनोबुद्धिभ्यः परो धर्मः इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समाप्ति ही धर्म का प्रारम्भ है। ० धर्मो व्यष्टिगतः ० समष्टिस्तत्संस्थानम् ० धर्मे निर्मलता ० कर्तव्यं दायित्वनिर्वहणम् धर्म व्यक्तिगत होता है। वह सामाजिक या राष्ट्रीय नहीं होता। जो सामाजिक या राष्ट्रीय होता है, वह धर्म का संस्थान हो सकता है, धर्म नहीं। ___ कर्तव्य राष्ट्रीय हो सकता है। उसका अर्थ है-नीति को क्रियान्वित करना। उसका संबंध आत्मा की पवित्रता से नहीं किंतु दायित्व से है। ० नीति-कर्तव्य-धर्माणामुत्तरोत्तरं सूक्ष्मता ० सम्यक्त्वानिवार्यमिति नीतिः ० सम्यग्भवितव्यमिति कर्तव्यम् ० सम्यगसीति धर्मः नीति स्थूल है, कर्तव्य सूक्ष्म है और धर्म सूक्ष्मतम। धर्म की मान्यता है-तुम अच्छाई से भिन्न कुछ भी नहीं हो। कर्तव्य कहता है-तुम्हें अच्छाई का पालन करना चाहिए। नीति कहती है-तुम्हें अच्छाई का पालन करना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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