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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः
२८३ ० परिस्थित्यानाहताहिंसा
अहिंसा का अर्थ है-परिस्थिति के मर्मभेदी परशु से मर्माहत न होना। ० चर्म शरीरं वृणोतीति व्रतम् ० तदभावे दयनीयं शरीरम्
चमड़ी हमारे शरीर का व्रत है। यदि वह नहीं होती तो हमारी स्नायुओं का क्या होता? ० शरीर-मन-आवेशानां नियमनं संयमः
आत्मनियन्त्रण का पहला अर्थ है-शरीर पर नियंत्रण। दूसरा अर्थ है-मन पर नियंत्रण । तीसरा अर्थ है-आवेश पर नियंत्रण। ० मेरूदण्डे प्राणे संयमिते सति प्राण-मनसोश्शन्तिरस्तित्वाभिव्यक्तिश्च
प्राण की धारा को हम मध्यवर्ती करें, पृष्ठरज्जु में प्रवाहित करें। इससे प्राण तथा मन दोनों शांत होंगे और अस्तित्व प्रकट हो जाएगा। ० कपालभातिप्राणायाम-त्रिबन्ध-दीर्घश्वासेभ्यः मेरूदण्डे प्राणसंयमनम्
प्राण को वहाँ केन्द्रित करने का पहला रास्ता है-कपालभाति प्राणायाम। इसके प्रयोग से प्राणधारा मध्यवर्ती होती है। दूसरा रास्ता है-त्रिबंध का प्रयोग अर्थात् जालंधर, उड्डीयान और मूलबंध । तीसरा रास्ता-दीर्घश्वास । मैंने इसका नाम दिया है-कोटि प्राणायाम-इसकी प्रक्रिया-एक दीर्घश्वास लें उसका रेचन कर तत्काल दूसरा दीर्घश्वास लें। पहला श्वास पूरा होते ही दूसरा उसके साथ संलग्न हो जाए, बीच में विराम न हो। श्वास का चक्र-सा बन जाए। यह है कोटि प्राणायाम यानि दीर्घश्वास । इन तीनों से प्राण मध्यवर्ती होता है जिससे रीढ़ की हड्डी नियंत्रित होती है। इससे सम्पूर्ण शरीर में अस्तित्व खुलकर प्रकट होता है। ० स्थूलचेतनासुषुप्तौ सङ्कल्पसिद्धिः
संकल्प के सिद्धान्त का एक सूत्र है-संकल्प उस समय करो जब ज्ञान-तन्तु शून्य होने जा रहे हों। स्थूल चेतना लुप्त होती जा रही हो। ० निर्विचारतासाधनं मौनम्
वाक् संयम (मौन) के द्वारा निर्विचारता को प्राप्त किया जा सकता है। ० एकान्तवासो मौनम्
मौन का परोक्ष अर्थ हो जाता है-एकान्तवास। ० स्वदर्शनम् दर्शनम्
दर्शन का अर्थ है-साक्षात् । जब हम अपने आप में देखते हैं तब दर्शन
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