________________
परिभाषाधिकरणे ज्ञानपादः
० अज्ञानं स्वयं दुःखम्
नहीं जानना स्वयं दुःख है। ० स्वास्तित्वानुभूतिर्ज्ञानम्। तदनुरागो विरागः ।
ज्ञान का अर्थ है अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति। अपने अस्तित्व के प्रति अनुराग होने का नाम ही विराग है। ० ज्ञानं बाह्यम्। प्रज्ञानमान्तरम्।
ज्ञान वह है जो बाहर से लिया जाता है। प्रज्ञान वह है जो भीतर में जागता है। ० अज्ञानं स्वीकरोतीति ज्ञानी, न स्वीकरोतीत्यज्ञानी।
ज्ञानी वह है जो अपने अज्ञान को जानता है, स्वीकार करता है। अज्ञानी 'वह है जो अपने अज्ञान को नहीं जानता, नहीं स्वीकार करता। ० अप्रमत्तो युवा, प्रमत्तो वृद्धः । अप्रमत्तस्य धर्मरतिः। निरुत्साही वृद्धः ।
युवा वह होता है जो अप्रमत्त होता है। बूढ़ा वह होता है जो प्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होगा उसमें धर्म के प्रति उत्साह होगा। बूढ़ा वह होता है जिसका उत्साह मर जाता है। ० दृष्टिविमलता विवेकः
विवेक है दृष्टि की स्पष्टता । ० सत्यसान्निध्यं निवृत्तिः
सत्य के निकट हो सकें इसी का नाम निवृत्ति है। ० आत्मकर्मणोः क्षेत्रैक्यं बन्धः
बंध का मतलब है-आत्मा और कर्म का प्रभाव क्षेत्र ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org