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काव्यालोचन
और अपना पेट भरें आराम कोई न करे।
एक श्रमण की प्रार्थना यही तो हो सकती है कि-आराम कोई न करे, सब अप्रमाद में जियें। अप्रमादी ही अभय को प्राप्त हो सकता है। लू तो चलेगी। ऋतु-चक्र को कौन रोक सकता है ? लेकिन फिर भी
क्या यह नहीं हो सकता कि जेठ नहीं आये वह आये भी तो लू न चले। और वह चलने लगे तो तत्काल श्रम की बूंदें समेट ले उसे अपनी बाहों में।
आदमी सोना इसीलिये तो चाहता है कि काम न करना पड़े, पर श्रमण का आह्वान तो श्रम करने का ही हो सकता है। श्रमण ही क्यों, ब्राह्मण भी तो यही धुन लगाये हैं-चरेवैति चरेवैति । फिर भी मनुष्य सोना चाहता है कि उसे काम न करना पड़े। कारण ? कारण भी आचार्य महाप्रज्ञ ने बतला दिया है__ “धन क्या है ? यह सोचता रहा हूं पर समाधान नहीं मिला है। मनुष्य बुद्धिशील प्राणी है। इसलिए उसकी बुद्धि पर सहसा अविश्वास करना भी उचित नहीं पर मनुष्य मोहशील प्राणी है, उसकी मूढ़ता पर भरोसा करना भी अनुचित नहीं है।
___मनुष्य ने सोना, चांदी, मणि आदि पार्थिव वस्तुओं को धन मान रखा है। मानना बुद्धि का काम है, किंतु जो तद्रूप नहीं, उसे तद्रूप मानते रहना मोह का संस्कार है। खान-पान जैसी आवश्यक वस्तुओं को धन मानना कुछ प्रयोजन रखता है, किंतु जिनका जीवन के लिए कोई उपयोग नहीं, उन्हें धन मानना कुछ भी अर्थवान् नहीं लगता। जिसने सोने को धन की संज्ञा दी, उसने मनुष्य जाति का हित नहीं किया।
जो तद्रूप नहीं, उसे तद्रूप मानते रहना जैन परम्परा का मोह है, वेदान्त परम्परा का अज्ञान है और बौद्ध परम्परा की अविद्या है। बात छोटी सी है, . सरल भी है पर सत्य तो सदा सीधा और सरल ही होता है
“सहज सरल जीवन की पोथी, बड़ा जटिल अनुवाद हो गया।"
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