________________
६
महाप्रज्ञ-दर्शन
२५. परिस्थिति की अनुकूलता और २५. निषेधात्मक दृष्टिकोण अनुकूल को प्रतिकूलता निश्चित है ।
भी प्रतिकूल बना देता है विधेयात्मक दृष्टिकोण प्रतिकूल को भी अनुकूल बना देता है।
२६. हम अपने शुद्ध रूप में न छोटे हैं न बड़े ।
२६. हम छोटे-बड़े गरीब-अमीर हैं ।
२७. हमें कोई अन्य व्यक्ति सत्य का दर्शन करा देगा |
२८. हम विचार करके सत्य को जान लेंगे ।
२६.पदार्थ को बदलने के लिए कुछ क्रिया करनी पड़ती है। केवल देखने-जानने से कोई परिवर्तन नहीं
आता ।
३०. संस्कार मन में रहते हैं, शरीर में ३०. शरीर भी संस्कारों का वाहक है ।
नहीं ।
३३. हम निरन्तर बदल रहे हैं
1
२७. अपना सत्य स्वयं खोजना पड़ता है ।
३१. हमारी भावना पृथक् है; शरीर की ३१. भावना से शरीर की स्थूल क्रिया स्थूल क्रिया पृथक् है । प्रभावित होती है ।
३२. हम सुख-दुःख के द्वन्द्वों में जीते ३२. सुख-दुःख के द्वन्द्व हमारे मन की हैं। | हम सुख-दुःख से परे
उपज है हैं।
३३. हमारे अस्तित्व का दृश्य भाग बदलता है, साक्षी भाग नहीं ।
२८. सत्य वहाँ नहीं है जहाँ विचार ले जाता है । सत्य उस निर्विचारता जिस निर्विचारता में से विचार उत्पन्न होता है।
२६ क्रिया ऊपरी परिवर्तन ला सकती है । आन्तरिक परिवर्तन देखनेजानने से ही आता है ।
३५. प्रतिष्ठा पाकर हमारा उत्साह बढ़ता है और उससे व्यक्ति को सफलता मिलती है।
३४. जैसे हम बूढ़े होते हैं वैसे कमजोर ३४. कमजोर होना जरा है, परिपक्वता
हो जाते हैं।
वार्धक्य है । अवस्था बढ़ने पर शरीर जीर्ण हो सकता है, किंतु परिपक्वता में वृद्धि होनी चाहिये ।
३५. प्रतिष्ठा पाकर हम ये मान लेते हैं कि हम बहुत बड़े हैं, इससे हम पुरुषार्थ करना छोड़ देते हैं और हमारा विकास रुक जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org