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अहिंसा
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समझ कर पुण्य का कार्य मानती थी। आज भी यह देश विभिन्न प्रान्तों में बंटा है लेकिन यदि उत्तरप्रदेश की पुलिस मध्यप्रदेश की पुलिस पर आक्रमण करे तो यह स्थिति हास्यास्पद मानी जायेगी। क्योंकि हमने यह समझा है कि उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश यह विभाजन सुविधा के लिए है, वस्तुतः वे दोनों एक ही राष्ट्र के अंग हैं।
अब हमें यह भी समझना होगा कि हमारी मातृभूमि वस्तुतः पूरी पृथ्वी है। राष्ट्रों का विभाजन केवल सुविधा के लिए है। एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करना उतना ही हास्यास्पद है, जितना भारत के किसी एक प्रांत का दूसरे प्रान्त पर आक्रमण करना । रक्षा हमें पूरी पृथ्वी की करनी है; आधुनिक शस्त्रों का प्रयोग पूरी पृथ्वी के संतुलन को नष्ट करता है और इस प्रकार हम शस्त्र उठाकर कोई पुण्य नहीं करते अपितु पूरी भूमिमाता का हनन ही करते हैं ।
६. साम्यवादी व्यवस्था ने यह माना कि शोषण के प्रतिकार के लिये यदि अहिंसक उपाय कारगर न हों तो हिंसक उपाय बरतना भी गलत नहीं है । इसका प्रयोग भी सोवियत संघ जैसे राष्ट्रों में किया गया और वह प्रयोग_ असफल हो गया। सोवियत संघ बिखर गया और लोहे की दीवार टूटने के बाद यह पता चला कि वहां गरीबी भी दूर नहीं हुई । कारण स्पष्ट है - शोषण एक बुराई है - हिंसा दूसरी बुराई है। दो बुराई मिलकर एक अच्छाई नहीं बन सकती बल्कि ग्यारह बुराइयों को जन्म देती हैं । दरिद्रता तो दूर हुई नहीं, स्वतंत्रता का अपहरण अवश्य हो गया। शोषण का प्रतिकार करुणा और अपरिग्रह से हो सकता है। यह सत्य है कि करुणा और अपरिग्रह अब तक शोषण को नहीं मिटा सके, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे भविष्य में सफल नहीं होंगे। जैसे-जैसे मनुष्य की समझ बढ़ेगी, वैसे-वैसे पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में अपरिग्रह केवल धर्मोपदेश न रहकर वैज्ञानिक आवश्यकता भी बन जायेगा । जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होगा, वैसे-वैसे शोषित वर्ग इतना प्रबुद्ध हो जायेगा, कि उसका शोषण संभव नहीं होगा ।
७. हिंसा का अर्थ मार देना मात्र नहीं है। हिंसा का अर्थ है-प्रमादवश किसी को पीड़ा पहुंचाना । प्रमाद के बिना जीवनयापन किया जा सकता है। ८. मनुष्य और शेष पशु जगत् और वनस्पति जगत् के बीच भेदक रेखा हमारे मन की कल्पना है। प्रकृति में सभी भोक्ता है और सभी भोग्य भी हैं। मनुष्य अपने आपको कोई विशिष्ट स्थान नहीं दे सकता। वह प्रकृति का स्वामी नहीं बल्कि प्रकृति का एक भाग है।
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