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महाप्रज्ञ-दर्शन उपलब्ध होता है और सीमित है। उदाहरणतः ऊर्जा के लिए जिस कोयले या पेट्रोल का उपयोग हम करते हैं, वह हमारे पास सीमित है। जिस भूमि पर हमारे भोजन के लिए अन्न उत्पन्न होता है वह भूमि भी सीमित है। ऐसी स्थिति में क्या असीम इच्छाओं की पूर्ति के लिए असीम उपभोग का लक्ष्य रखना आर्थिक दृष्टि से बुद्धिमत्तापूर्ण माना जा सकता है? इच्छा और भोग की सीमा बांधना अपरिग्रह का तात्पर्य है। ऊपर जो चर्चा हमने पर्यावरण के प्रदूषण की की है वह प्रदूषण मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति के लिए नहीं अपितु लोभवृति को शांत करने के लिए है। हमारे सामने पर्यावरण समस्या और विकास की समस्या का द्वन्द्व निरन्तर बना हुआ है। यदि हम पर्यावरण की उपेक्षा करके विकास करते हैं तो वह विकास आत्मघाती सिद्ध होगा। क्योंकि एक दिन वे सब प्राकृतिक संसाधन ही चुक जायेंगे जिन संसाधनों पर समस्त विकास अवलम्बित है। दूसरी ओर यदि हम विकास की सर्वथा उपेक्षा कर देते हैं तो हमें आदिमकालीन मनुष्य की जंगली स्थिति में जाना पड़ जायेगा। दोनों संकटों से बचने के लिए इच्छा का परिसीमन करना होगा। अपरिग्रह पर महावीर से लेकर गांधी तक पर्याप्त विचार हुआ है और शूमेखर जैसे अर्थशास्त्रियों ने विशद्ध अर्थशास्त्र की दृष्टि से गांधी की अहिंसक और अपरिग्रही जीवन शैली का समर्थन किया है। क्रूरता का दृश्य ___आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपरिहार्य हिंसा हिंसा का एक पक्ष है किंतु हिंसा का एक दूसरा रूप भी है-क्रूरता। हम मनुष्यों के प्रति भी क्रूर होते हैं, किंतु क्रूरता का सबसे भयानक रूप पशुओं के प्रति हमारे व्यवहार में अभिव्यक्त होता है। जब हम मनुष्य के प्रति क्रूर होते हैं तो मनुष्य न्याय व्यवस्था की शरण ले सकता है-अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार भी कर सकता है किंतु पशु-पक्षी के पास अन्याय का प्रतिकार करने का कोई साधन नहीं है।
मृत्यु से बड़ी पीड़ा नहीं है और मांस प्राप्त करने के लिए पशुओं की जो हत्या की जाती है उसकी संख्या बहुत बड़ी है। इंगलैण्ड में १९८७ में ४,०००,००० पशु ६०,००० बछड़े १३,५००,००० भेड़े और १५,०००,००० सूअर मारे गये । अमेरिका में ४५,०००,०००० पशु प्रतिवर्ष मांस के लिए मारे जाते हैं। एक औसत अमरीकन अपने सत्तर साल के जीवन काल में जितना मांस खाता है, उसके लिए ग्यारह पशु, एक बछड़ा, तीन भेडे, २३ सूअर, ४५ बतखों ११०० मुर्गियां और ३६२ कि.ग्रा. मछलियां मारी जाती हैं।
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