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महाप्रज्ञ उवाच
विकास के विषय में कोई दो मत नहीं हैं। मतभेद का विषय है - सीमा । आदिमकाल से लेकर अब तक विकास का चक्र चलता रहा। उसकी गति बहुत धीमी थी। बीसवीं शताब्दी में विकास की रफ्तार तेज हुई। इसका श्रेय विज्ञान को है। सृष्टि संतुलन (इकोलोजी) की समस्या का श्रेय भी विकास की आंधी को ही है ।
विकास के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है। वह संवेग के अतिरेक से प्रभावित है ।
संवेग के अतिरेक की दशा में चिन्तन और बुद्धि दोनों निष्क्रय हो जाते
आर्थिक विकास ने अमीरी को बढ़ावा देने के साथ-साथ गरीबों को भी बढ़ावा दिया है। वर्तमान में सम्पत्ति और उपभोग के साधनों पर अल्पसङ्ख्यक व्यक्तियों का अधिकार है। बहुसङ्ख्यक लोग उस अधिकार से वंचित हैं ।
हर व्यक्ति येन केन प्रकारेण अमीर बनना चाहता है। उस धुन में जंगलों की कटाई हो सकती है। फैक्ट्रियों का कचरा नदियों में प्रवाहित कर जल को दूषित किया जा सकता है और भूमि का मर्यादाहीन खनन किया जा सकता है । अमीरी के लिए सब कुछ किया जा सकता है और सब कुछ हो रहा है हम संवेगातिरेक की समस्या को सुलझाए बिना अनैतिकता अथवा अप्रामाणिकता की समस्या को नहीं सुलझा सकते । अनैतिकता की समस्या को सुलझाए बिना सृष्टि संतुलन (इकोलॉजीकल बैलेंस) और पर्यावरण (इनवार्नमेंट) की समस्या को नहीं सुलझा सकते I
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आज का करणीय कार्य यह है कि हम लोभ के संवेग के साथ करुणा के संवेग को जागृत करें। लोभ के संवेग को नियंत्रित करने का शक्तिशाली अस्त्र करुणा, अहिंसा या मैत्री है।
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