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महाप्रज्ञ-दर्शन फिर नाले के पनढाल में बड़े पैमाने पर जंगल कट गए और उन क्षेत्रों में कई खदानें चालू हो गई। भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती गई। चारों तरफ से मलबा बहकर नाले में आता गया और उसका तल ऊपर उठता गया। कमानी
और तल की दूरी हर वर्ष कम होती गई। १६८० तक सिर्फ एक मीटर की जगह रह गई। हर साल एक फुट की रफ्तार से नाला भरता जा रहा है। पुल की ऊपरी हिस्से का जंगल एकदम साफ हो गया है। कुछ वर्षों में नाला मिट्टी पत्थर से पूरी तरह भर जाएगा और तब बरसात के दिनों में पानी पुल के नीचे से नहीं, ऊपर से बहा करेगा। दुर्भाग्य से देश में ऐसे नदी-नालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इनमें बहकर आने वाली मिट्टी, पत्थर पनढालों की बरबादी के शिलालेख लिख रहे हैं। पर लगता है इन्हें कोई पढ़ ही नहीं पा रहा है। कभी जिस हिमालय की गोदी में हजारों नदियां खेलती थी, आज उसी गोदी में सूख रही है हजारों नदियां।
(पृष्ठ ७५) , तंबाखू के हरे पत्तों को सुखाने के लिए खूब लकड़ी लगती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विकासशील देशों में तैयार होने वाले हर ३०० सिगरेट के लिए एक पेड़ जलता है। विश्व भर में कटने वाले कुल पेड़ों का १२ प्रतिशत हर साल तंबाखू पकाने में लगता है। यानी, हर साल २५ लाख टन तंबाखू तैयार करने के लिए १२ लाख हैक्टेयर जंगल साफ होता है।
तंबाखू बनाने वालों में विश्व में हम तीसरे नंबर पर हैं। १६८२-८३ में पकाई गई वर्जीनिया तंबाखू का क्षेत्र ३२.७ प्रतिशत बढ़ा जिसने २०३,००० हेक्टेयर क्षेत्र को घेर लिया। तंबाखू से रोजाना दो करोड़ रुपये की एकसाइज डयूटी प्राप्त होती है। पेट्रोल तथा पेट्रोलियम उत्पादनों के बाद इसी का नंबर है। १९८०-८१ में पकाई गई तंबाखू के निर्यात से ११५.८० करोड़ रुपये की आय हुई थी।
पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई ने तंबाखू उत्पादन के प्रमुख राज्य आंध्र प्रदेश का अध्ययन किया है। आंध्र में वर्जीनिया तंबाखू ६८००० हैक्टेयर में लगी है। कुल तंबाखू का ४० प्रतिशत यहां पैदा होता है। सरकार बढ़ा-चढ़ा कर कहती है कि आंध्र में वन क्षेत्र ६१ लाख हेक्टेयर है जबकि वास्तव में २० और २५ लाख हेक्टेयर के बीच ही है। इतना कम वन होने पर भी हर साल तंबाखू की खेती ८५,००० से १५०,००० हेक्टेयर जंगल को खा रही है। यानी वनों की कुल कटान का चौथाई से कुछ कम हिस्सा तंबाखू के कारण कटता है। इस गति से अगले १५ वर्षों में आंध्र प्रदेश में जंगल कुछ भी रह नहीं पाएगा।
(पृष्ठ ७६)
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