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महावीर उवाच अब जल्दी सूख जाते हैं, बारिश भी कम हो गई हैं। ऐसे रोग और कीड़े होने लगे हैं, जो पहले कभी नहीं होते थे। वे सारी फसलों को, खासकर सुपारी और काली मिर्च को भारी नुकसान पहुंचाते हैं।
(पृष्ठ ६३) पैकिंग उद्योग ने वनों को काफी नुकसान पहुंचाया है। इसके लिए कोई पांच लाख घनमीटर लकड़ी लगती है। अगले २० सालों में यह खपत १२ लाख घन मीटर तक बढ़ेगी। हिमाचल प्रदेश में काटे जाने वाले पेड़ों की २० प्रतिशत लकड़ी पैकिंग के काम आती है। योजना आयोग द्वारा गठित पिछडे क्षेत्रों के विकास की राष्ट्रीय समिति ने अंदाज लगाया है कि एक हेक्टेयर में पैदा होने वाले सेब को पैक करने में १० हेक्टेयर के पेड़ साफ हो जाते हैं। तीनों राज्यों में आज कुल दो लाख हेक्टेयर में सेब के बाग लगे हैं। इतने सेब पैक करने में लगभग २० लाख हेक्टेयर जंगल कटेंगे।
(पृष्ठ ६४) वनवासी की पूरी जिंदगी गौण मानी गई वन उपजों पर टिकी है। इनमें महुआ जैसे फूल, साल जैसे बीज, और तेंदू जैसे पत्ते, राल, बांस, लाख, आम और महुआ जैसे फल आदि आते हैं। ८० प्रतिशत से ज्यादा वनवासी २५ से ५० प्रतिशत तक के भोज्य पदार्थ वनों से ही पाते हैं। दरअसल “गौण वन उपज" एक निरा बाजारू शब्द है। वनवासियों के लिए यह गौण उपज ही मुख्य उपज है।
जंगलों के कटने से ये गौण उपज दुर्लभ होती जाती है। खाने के काम में आने वाले महुए के फूल, कंदमूल आदि पिछले बीस वर्षों में घट गए हैं।
(पृष्ठ ६५) वर्तमान वनों का अति दोहन हो रहा है और सुंदर जंगलों का शोषण बढ़ रहा है। भारतीय कागज निर्माता संघ के अध्यक्ष के अनुसार, “गिरे हुए वर्तमान उत्पादन के बावजूद वन-उपजों की मात्रा सीमित हो जाने के कारण कागज के कारखानों में आये दिन हड़बड़ देखने में आती है। मुख्य समस्या कच्चे माल के सूखते जा रहे स्रोत हैं।"
उत्तर-पूर्वी "हरी-खानों” का दोहन करने में यातायात के साधनों की कमी ही एक अड़चन है, लेकिन एक बार उस क्षेत्र में अच्छी सड़कें बन जाए तो फिर सारा इलाका फौरन उजड़ जाएगा। इस बीच आंध्र प्रदेश विकास निगम काकीनाड़ा में सरकारी पेपर मिल लगा रहा है। उसमें कच्चे माल के रूप में अछूते अंडमान द्वीपों से लकड़ी की छिलपट का उपयोग होगा। (पृष्ठ ६६)
देहरादून और मसूरी को जोड़ने वाली सड़क कई नदी नालों को पार करती है। राजपुर के पास कोलागढ़ नाले पर ७० साल पहले एक पुल बनाया गया था। तब पुल की कमानी नाले के तल से २० मीटर ऊंची थी।
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