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महाप्रज्ञ-दर्शन किस रसायन की है पर अब उनका हृदय कमजोर हो चुका है। जैन ने ग्रासिम फैक्ट्री पर मुकदमा भी दायर किया है।
स्टेपल फाइबर प्लांट में ही मोहनलाल जोशी १६६० में बहाल हुए थे। १९७३ में ३३ बरस की उम्र में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। दूसरा दौरा १६६८ में पड़ा और तीन महीने के इलाज में जमा पूंजी चूक गई। पत्नी के जेवर और मकान जमीन तक बेचने पड़े।
(पृष्ठ १५६) १६६०-८० के बीच देश में कीटनाशकों की खपत करीब २० गुना बढ़ी है। १९८४-८५ के दौरान करीब एक लाख टन कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ। मोटा अनुमान है कि इससे करीब दस फीसदी फसल बर्बाद होने से बचा ली गई होगी। कीटनाशकों की मांग लगातार बढ़ाई जा रही है। ८० के दशक में कीटनाशकों का उत्पादन १४ फीसदी बढ़ा। १६८०-८१ में यह ४३ हजार टन था। उत्पादन में १ फीसदी की भारी बढ़ोतरी के बावजूद कीटनाशकों का आयात इसी अवधि में करीब सात गुना बढ़ा है।
हमारे यहां इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों में करीब ७० प्रतिशत ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल पश्चिमी देशों में या तो निषिद्ध हो चुका है अथवा बहुत कम कर दिया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इन्हें अत्यंत जहरीला तथा नुकसानदेह बता दिया है। मलेरिया उन्मूलन जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों में बहुत से इस निषिद्ध श्रेणी में आते हैं। हमारे यहां धड़ल्ले से इस्तेमाल होने वाला डी.डी.टी. अनेक देशों में वर्जित है। जमीन, वनस्पति और शरीर पर बहुत लंबे समय तक नुकसानदेह असर बने रहने के कारण इस पर रोक लगा दी गई है। लेकिन ताजा आंकड़ों के अनुसार हमारे यहां डी.डी.टी. की खपत कृषि क्षेत्र में ३,५०० टन और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में ४,००० टन है।
ई.पी.एन. नामक एक कीटनाशक, जिसका दुनिया में कहीं इस्तेमाल नहीं होता और जिसे संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी सूची से निकाल दिया है, यहां धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है। १६८३ में भारत सरकार द्वारा मंजूर कीटनाशकों की सूची में ई.पी.एन. भी था।
पत्रकार प्रफुल्ल बिदवई ने बताया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तैयार उस सूची में भारत तीसरे नंबर पर है, जहां कीटनाशकों की दुर्घटनाएं ज्यादा और हर साल होती हैं।
इन सब जहरीली चीजों का सबसे ज्यादा असर खेतिहर मजदूरों और मलेरिया उन्मूलन विभाग के छोटे कर्मचारियों पर पड़ता है क्योंकि ये लोग ही
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