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महावीर उवाच
नाले पर बांध बांधकर मुहैया किया जाता है। डिपॉजिट नंबर १४ के लोहा शोधन संयंत्र से जो कचरा निकलता है, उसमें १८-२० प्रतिशत लोहे का अंश होता है। यह सब उसी नाले में बहा दिया जाता है। इससे नाले का सारा पानी गाढ़ा लाल हो जाता है। नाले के निचले हिस्से में संयंत्र का गंदा पानी भी आ मिलता है। इससे भी पानी लाल होता है। इसी तरह शंखिनी नदी के प्रदूषण का असर आस पास के ५१ गांवों पर पड़ रहा है जिनकी कुल आबादी लगभग ४०,००० से ज्यादा है। ज्यादातर लोग वनवासी हैं। उन्हें आज पीने, नहाने धोने के लिए साफ पानी नहीं मिलता है। जानवरों को भी परेशानी हो रही है। वहां के लोग कहते हैं, "इस परियोजना से हमें अगर कुछ मिला है तो यह लाल पानी ही है।" आदिवासियों ने शंखिनी नदी का नया नाम रख दिया है “दुखनी” । (पृष्ठ २६) खदान कोई भी हो, उसके खनिज की धूल चारों ओर फैलती ही है। वह कच्चे माल के ढेर में से तेज हवा के द्वारा, बारूद के धमाकों और भारी मशीनों के कारण हो रही उथल पुथल से उड़कर सब जगह छा जाती है। धमाके से जहरीला धुंआ भी हवा में फैलता है। खदान क्षेत्रों में वायु प्रदूषण के कारण लोगों को सांस की और आंख की न जाने कितनी तरह की बीमारियां होती हैं । सिलिकोसिस और एस्बेस्टस आदि की धूल सांस द्वारा फेफड़े में पहुंचती है तो उससे फेफड़ों की बीमारियां हुआ करती है। आंख की बीमारियों में मोतियाबिंद, कंजक्टीवाइटिस, कार्नियल अल्सर, ग्लूकोमा और स्क्विंट ट्राकोमा मुख्य है ।
खान मजदूरों में, जिन्हें खनिज की धूल भरी जगहों में काम करना पड़ता है, सांस और आखं की बीमारियां सबसे ज्यादा होती है। लेकिन खदानों के आस पास जो लोग बसते हैं और उनमें भी जिन लोगों का शरीर अन्य रोगों से पहले ही दुर्बल हो गया है, उनके लिए भी यह धूल खतरनाक होती है । (पृष्ठ ३०)
खदानें कई उद्योगों के कच्चे माल के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। देश के कुल निर्यात में कच्चा लोहा ६ प्रतिशत से १० प्रतिशत तक है और इस प्रकार खदानें विदेशी मुद्रा के महत्त्वपूर्ण साधन हैं । सरकारी तौर पर खदानों की हिमायत इसी बात पर की जाती है। उनसे पिछड़े इलाकों में रोजगार मिलता है और क्षेत्रीय विकास में मदद। लेकिन खदानों के अलिखित प्रतिफल हैं- भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी, निजी संपत्ति का भारी संचय और काला धन, जो प्रायः चुनाव प्रचार के लिए दान किया जाता है। वैध खदानों में जो अवैध खुदाई होती है और गैर कानूनी कारोबार चलता है उसका नतीजा यह है कि खेती की जमीन और जंगल जैसी प्राकृतिक संपदा बरबाद होती है और राष्ट्रीय संपत्ति की
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