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महाप्रज्ञ उवाच
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काम और अर्थ जीवन यात्रा को चलाने के लिए हैं। काम के बिना जीवन की यात्रा नहीं चलती। जीवन की यात्रा तब तक चलती है, जब तक काम है। कामना तब तक पूरी नहीं होती, जब तक अर्थ नहीं होता। कामना की पूर्ति का एकमात्र साधन है अर्थ । जो आदमी केवल इन दो आयतनों में ही जीना चाहता है वह आदमी शान्ति का जीवन नहीं जी सकता। वह आदमी संतोष, स्थिरता और प्रसन्नता का जीवन नहीं जी सकता।
जो केवल दो आयतनों में जीना चाहते हैं, वे मानवीय चेतना के साथ खिलवाड़ करते हैं। वे मनुष्य को केवल रोटी के आधार पर जिलाना चाहते हैं। क्या रोटी मन को शान्ति दे सकती है? जिन्हें प्रचुरता से रोटी उपलब्ध है, उनका मन भी प्रचुर रूप में अशान्त बना हुआ है। ___ हम अर्थ व्यवस्था को संतुलित करना चाहते हैं और काम व्यवस्था की उपेक्षा करते हैं। क्या असंतुलित काम व्यवस्था से संतुलित अर्थ व्यवस्था का जन्म होगा? उत्तर सीधा है-नहीं होगा।
स्वस्थ समाज की रचना के लिए अर्थ व्यवस्था पर जितना ध्यान देना जरूरी है उतना ही जरूरी है काम व्यवस्था पर ध्यान देना।
__ अर्थ का विनिमय हो सकता है इसलिए वह सामाजिक तत्त्व है। काम वैयक्तिक है। उसकी व्यवस्था कैसे की जाए? कौन करे? यह एक जटिल प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर भी खोजा गया है। काम के द्वारा पैदा की जाने वाली सामाजिक समस्या अपराध है और व्यवस्था भंग मानव जाति के लिए सिरदर्द है। इसलिए उस पर नियंत्रण करने के मार्ग समाज और धर्म दोनों के स्तरों पर खोजे गये। काम की उच्छृखलता पर अंकुश लगाने के लिए समाज के पास एक दण्ड संहिता है और धर्म के पास एक आचार संहिता है।
भय निरोध का प्राथमिक मार्ग है। आचार संहिता से हृदय परिवर्तन होता है किंतु उसका प्रभाव दीर्घकालिक नहीं होता। परिष्कार के लिए प्रशिक्षण और प्रयोग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
अक्षर बोध, गणित का ज्ञान, भाषा और तर्क का बोध-ये आजीविका चलाने के साधन हैं। ये जीवन के साध्य नहीं हैं। कभी-कभी आदमी साधन को प्रथम मान लेता है और मूल को भुला बैठता है। आदमी का सारा ध्यान साधन पर अटका रह जाता है। साधन जिसके लिए है वह उपेक्षित हो जाता है। सब्जेक्ट आंखों से ओझल हो जाता है और सारा ध्यान ऑब्जेक्ट पर अटका रह जाता है। व्यक्ति आग से जलते हुए घर में से सारा सामान निकाल लेता है पर उस बच्चे को जो उस सामग्री का भोक्ता होने वाला है, निकालना भूल
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