________________
११२
महाप्रज्ञ-दर्शन
ऊर्ध्वमुखी हो जाती हैं उसके कारण प्राप्त शक्तियां पूरे शरीर में फैल जाती हैं। जब तक यह यौगिक प्रक्रिया न अपनायी जाये तब तक शरीर से संयम रखना और मन से भोगों में रस लेना विक्षिप्तता उत्पन्न कर सकता है।
ब्रह्मचर्य एक पुल है आन्तरिक शक्तियों के विकास का। आन्तरिक शक्ति का अर्थ है मनोबल की वृद्धि। जब हम विषयों के सामने पराजित हो जाते हैं तो हमारा मनोबल क्षीण हो जाता है। विषयों के सम्मुख न झुकने पर हमारा मनोबल दृढ़ होता है। ब्रह्मचर्य मनोबल को दृढ़ रखने की प्रक्रिया है। आहार-संयम
ब्रह्मचर्य के लिए प्रथम आवश्यकता आहार संयम की है क्योंकि आहार से ही रस, शक्ति आदि बनते हुए वीर्य बनता है। स्वादिष्ट भोजन आवश्यकता से अधिक कर लिया जाता है। गरिष्ठ भोजन पचता नहीं है। परिणाम यह होता है कि पेट साफ नहीं रह पाता उससे सारा शरीर दूषित हो जाता है और कुवासनाएं उत्पन्न होती हैं। आसन और प्राणायाम इन्द्रिय संयम में सहायक हैं। ये शारीरिक पक्ष हैं। मानसिक दृष्टि से अनुप्रेक्षाएं सहायक सिद्ध होती हैं।
शारीरिक दृष्टि से वीर्य दो भागों से प्रवाहित हो सकता है। जननेन्द्रिय के द्वारा वीर्य का प्रवाहित होना एक सीमा तक अधिक हानिकारक नहीं है किंतु उससे अधिक सीमा में वीर्य यदि जननेन्द्रिय के माध्यम से व्यय हो जाता है तो वीर्य का ऊर्ध्वगामी प्रवाह अधोगामी हो जाता है अतः मष्तिष्क को पर्याप्त ओज प्राप्त नहीं होता। फलस्वरूप उस व्यक्ति के ओज में कमी आ जाती है। भावक्रिया
___ मानसिक दृष्टि से स्त्री-कथा, उनकी चेष्टाओं का स्मरण इत्यादि ब्रह्मचर्य में बाधक है। जिसका मन बहुत स्थिर हो गया उसके लिए विपरीत निमित्त भी बाधक नहीं बनते, किंतु प्रारम्भ में साधक को विपरीत निमित्तों से बचना ही चाहिए। इस संबंध में शास्त्रों में बहुत विस्तृत विवरण है। उदाहरणतः सुगन्धित द्रव्य कामना को उभारते हैं। 'जैसा अन्न वैसा मन' यह कहावत प्रसिद्ध है। तपस्या देह के प्रति ममता के भाव को कम करती है। विलासिता देह की ममता को बढ़ाती है।
खाना, पीना, सोना, चलना ये सभी क्रियाएं साधु और गृहस्थ की समान हैं फिर भी दोनों में इन क्रियाओं का फल एक समान नहीं मिलता। साधु द्रष्टा है उसकी सब क्रियाएं आत्मज्ञान पूर्वक होती है इसलिए वह उन क्रियाओं में आसक्त नहीं होता। उसकी भाव-शुद्धि बनी रहती है। उसके बाहर क्रिया चलती है किंतु उसका अन्तर् क्रिया से अस्पृष्ट रहता है। गृहस्थ क्रिया में रस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org