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काम और संयम
इच्छा परिमाण
अर्थ से सुख की प्राप्ति होती है । सहज रूप में मनुष्य जितना सुख चाहता है उसकी कोई सीमा नहीं है । इसलिए मनुष्य की वित्तैषणा की भी कोई सीमा नहीं है । अर्थनीति का विवरण देते समय आचार्य महाप्रज्ञ ने यह स्पष्ट किया कि वित्तैषणा की भी एक सीमा होनी चाहिए। इसका स्वाभाविक फलितार्थ यह है कि हमारी सुख की इच्छा भी नियंत्रित हो ।
सुख की इच्छा के संयम का नाम है - ब्रह्मचर्य । प्रश्न होता है कि यह अस्वाभाविक है कि मनुष्य सुख की इच्छा को दबाये । सुख की इच्छा स्वाभाविक है उसका दमन उचित नहीं । समाधान यह है कि सुख की इच्छा को दबाना नहीं है अपितु उसका परिष्कार करना है । इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला सुख सीमित है । उस सुख से इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती है । अन्ततोगत्वा भोग भोगते-भोगते हम स्वयं ही भोगे जाते हैं- " भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः।” यह इन्द्रियजन्य सुख की स्थिति है।
उपनिषदों में कहा है "आनन्द ही ब्रह्म है" : वह आनंद जिसे ब्रह्म कहा गया है - चेतना का सहज रूप है । उसकी कोई सीमा नहीं और न उसकी परिणति ग्लानि के रूप में होती है । ब्रह्मचर्य एक सर्जनात्मक शक्ति है जिसका परिचय हमें बुद्ध महावीर जैसे महानुभावों के जीवन में उपलब्ध होता है ।
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ब्रह्मचर्य सुख का अपलाप नहीं है। जब आन्तरिक चेतना के बिना जागृत हुए हम इन्द्रियों के सुख की वर्जना करते हैं तो यह संभावना रहती है कि हम भटककर विक्षिप्त हो जायें। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सभी इन्द्रियां परस्पर जुड़ी हुई हैं । कोई व्यक्ति रसना - इन्द्रिय पर संयम किये बिना जननेन्द्रिय पर संयम करना चाहे तो यह संभव नहीं है। यदि हमें आत्मसुख प्राप्त हो जाता है तो निम्नगामी वृत्तियां स्वयं ही शान्त हो जाती हैं । निम्नगामी को ऊर्ध्वगामी बनायें
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चित्तवृत्तियों को ऊर्ध्वगामी बनाने का उपाय ध्यान में निहित है । हमारे शरीर के भिन्न-भिन्न केन्द्रों पर विद्युत् प्रवाह प्रवाहित है । यदि हमारा मन उन केन्द्रों पर एकाग्र हो जाये तो एक प्रकार की अनुभूति होने लगती है। हम समझते हैं कि सुख-दुःख बाहर के पदार्थों से आते हैं किंतु बाहरी पदार्थ एक विशेष प्रकार का प्रकम्पन अथवा स्पन्दन पदार्थ का निमित्त पाये बिना भी जग सकते हैं । ऐसी स्थिति में बाह्य निमित्त की आवश्यकता नहीं रहती ।
दर्शन केन्द्र और ज्योति केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करने से हमारी वृत्तियां
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