SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ । काम और संयम एक अन्य उपाय साक्षीभाव है। साक्षी भाव का अर्थ है शुद्ध चैतन्य में स्थित हो जाना। शुद्ध चेतना में न कषाय है न राग द्वेष है। जो शुद्ध चेतना में स्थित रहता है, वह राग-द्वेष से बच जाता है। हमारे शरीर के निम्न भाग में सैक्स के केन्द्र हैं। प्रतीक की भाषा में अधोलोक को नरक कहा गया है। शरीर का ऊर्श्वभाग स्वर्ग है। ऊर्जा का होना ही पर्याप्त नहीं है। उसका ऊर्ध्वगामी होना भी आवश्यक है। तप से ऊर्जा उत्पन्न होती है। गुप्ति से ऊर्जा सुरक्षित रहती है। ध्यान से ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है। ऐसी स्थिति में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह चार कामना मूलक संज्ञायें और कषायों की चार मनोमूलक संज्ञायें नष्ट हो जाती हैं। जप स्पन्दन को नियन्त्रित करने का एक उपाय है मंत्र का प्रयोग। मंत्र स्वयं स्पन्दन रूप है। किस मंत्र के प्रयोग से कौनसा स्पन्दन उत्पन्न होता है यह ज्ञान मंत्र विद्या का विषय है। इन्द्रियां चेतना के स्तर पर स्थूल स्पंदन हैं। चार्वाक ने जब प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना तो उसने स्थूल स्पन्दनों को ही स्वीकृति दी। काम के हेतु ___ काम-भोग में लिप्त होने के दो हेतु हैं। प्रथम हेतु तो यह है कि हम इन्द्रियों और मन के जगत् में जीते हैं। इन्द्रियां और मन स्थूल को ही ग्रहण करते हैं। जब तक सूक्ष्म पकड़ में न आये व्यक्ति भोग से पराङ्मुख नहीं हो सकता। दूसरा कारण यह है कि हम प्रवाह के साथ बह रहे हैं। हम सोचते हैं कि जिस प्रकार सब भोगों में लिप्त हैं उसी प्रकार का जीवन हम भी जीयेंगे। अतीन्द्रिय चेतना का अर्थ इन्द्रियों की चेतना से ऊपर उठना है। इसका अर्थ है राग द्वेष से ऊपर उठना। जो यह नहीं कर पाया वही मिथ्यादृष्टि है, नास्तिक है। इन्द्रियां किधर, किस तरफ ले जाती हैं, भीड़ किधर जा रही है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसका यह अर्थ न समझा जाये कि इन्द्रियां हमारी शत्रु हैं। हमारे शत्रु राग-द्वेष हैं, इन्द्रियां नहीं। हमारा सारा कार्य इन्द्रियों के माध्यम से चलता है, इसलिए इन्द्रियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। सच तो यह है कि राग-द्वेष इन्द्रियों की पटुता को कम करते हैं। योग से देखना, सुनना बंद नहीं होता, अपितु दूरदर्शन और दूरश्रवण की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। आसक्ति का मर्म ____ इन्द्रियों के विषय नहीं छोड़े जा सकते किंतु वे विषय विकार उत्पन्न न करें यह संभव है। इसके लिए विवेक आवश्यक है। विवेक का अर्थ है यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy