________________
१०८
महाप्रज्ञ-दर्शन प्राण का संचालन ऊर्ध्वमुख हो तो विद्युत् मस्तिष्क को मिलती है। मस्तिष्क शरीर का दो प्रतिशत भाग है किंतु उसे विद्युत् बीस प्रतिशत चाहिए । अधिक भोजन करने पर प्राण भोजन को पचाने में काम आ जाती है और मस्तिष्क तक नहीं पहुंच पाती, इसलिए अति भोजन करने वाला बौद्धिक दृष्टि से उत्तम कार्य नहीं कर पाता। विद्युत् अथवा ऊर्जा के अपव्यय का मुख्य हेतु है काम की अति । ऊर्जा गति देती है। गति का ही सूक्ष्मरूप-स्पन्दन है। आज विज्ञान के क्वाण्टम सिद्धान्त ने हमारे सामने वह तथ्य उद्घाटित किया है कि स्पन्दन ही अन्तिम सत्य है। हमारे स्थूल शरीर में स्पन्दन होता है। चैतन्य भी स्पन्दन रहित नहीं है। कुछ स्पन्दन अनुकूल प्रतीत होते हैं कुछ प्रतिकूल । जब मन अनुकूल स्पंदनों से जुड़ता है तो सुख होता है, जब मन प्रतिकूल स्पन्दनों के साथ जुड़ता है तो दुःख होता है। सैक्स का भी एक स्पन्दन है। प्रत्येक आवेश का एक स्पन्दन होता है। जब हमारा मन उस स्पन्दन से जुड़ता है तब हमें सुख दुःख की प्रतीति होती है। मन न जुड़े तो सुख-दुःख की प्रतीति भी नहीं होगी।
ध्यान और काम
. स्थूल शरीर के स्पन्दन सबसे अधिक पकड़ में आते हैं। सामान्य पुरुष प्रायः इन्हीं स्पन्दनों में आसक्त रहता है। स्थूल शरीर में होने वाले स्पन्दन ही सैक्स के मूल हैं। किंतु चैतन्य के स्पन्दन शरीर के स्पन्दन से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं। चैतन्य में स्पन्दन को पकड़ने का मार्ग है अन्तर्मुखता, यह अन्तर्मुखता ही ध्यान है।
ध्यान के अनेक चरण हैं। अनुलोम-विलोम प्राणायाम ध्यान का एक उपाय है। इससे व्यक्ति का संतुलित विकास होता है। हमारे मस्तिष्क का बांया भाग विश्लेषण परक गणित आदि विषयों में निपुण है तथा दांया भाग संश्लिष्ट आध्यात्मिक विकास का साधन है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम इन्हीं दोनों के बीच संतुलन बनाता है। ध्यान का दूसरा उपाय है-मेरुदण्ड के बीच ध्यान केन्द्रित करना। यह स्वचालित वृत्तियों को संचालित करता है। मेरुदण्ड पर ध्यान करने से हम स्वचालित वृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं।
साक्षी भाव से नया मल आने से रूकता है। यह संवर है। जो मल पहले से संचित है वह प्रतिपक्ष की भावना करने से उच्छिन्न होता है। यह निर्जरा है। अनुप्रेक्षा उसका साधन है। हमें दुष्प्रवृत्तियों से लड़ने के लिए अनेक उपाय करने पड़ते हैं। लोकलाज भी हमें दुष्प्रवृत्ति से रोकती है। स्वयं का विवेक दुष्प्रवृत्ति से रोकने का दूसरा उपाय है। तीसरा उपाय है उदात्तीकरण । अर्थात् सत्प्रवृत्तियों के द्वारा दुष्प्रवृत्तियों को रोकना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org