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________________ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल ६३ किया, वहां तक वह समस्या शोषित वर्ग के प्रतिकूल थी, किंतु शोषक के लिए तो अनुकूल ही थी। अब जब यह तथ्य उजागर हुआ कि उद्योगों से पर्यावरण नष्ट हो रहा है तो यह भी प्रकट हो गया कि उद्योग केवल शोषित के लिए ही प्रतिकूल नहीं है, शोषक के लिए भी घातक सिद्ध हो रहे हैं। क्योंकि पर्यावरण प्रदूषण शोषित और शोषक के बीच भेद नहीं करता । दूषित वायु और जल गरीब-अमीर सबको मारते हैं। अमीर भी उस मार से बच नहीं पाता । आणविक शस्त्रों के आविष्कार के कारण भी यही स्थिति बनी है कि उनके दुष्परिणामों का फल आक्रान्ता को तो भोगना पड़ता है, आक्रामक को भी भोगना पड़ता है। इस सारी बदली हुई परिस्थिति ने हमें वह तथ्य जो पहले आध्यात्मिक स्तर पर ज्ञात थे, अब भौतिक स्तर पर ज्ञात करा दिया है कि किसी को भी नुकसान पहुंचाने में हमारा अपना ही नुकसान अन्तर्निहित रहता है। पहले भी अज्ञानवश मनुष्य हिंसा करता था, तो यह नहीं समझ पाता था कि वह हिंसा करने में अपना ही नुकसान कर रहा है किंतु यदि आज मनुष्य इस बात को नहीं समझ रहा है तो वह प्राचीनकाल के अज्ञानी की अपेक्षा अधिक बड़ा अज्ञानी है, क्योंकि वह हिंसा के स्थूल दुष्परिणामों को भी नहीं देख पा रहा है । निष्कर्ष यह है कि आत्मीयता का आधार पहले भी यही था और आज भी यही है कि दूसरे की बुराई में मेरी बुराई है और दूसरे के हित में मेरा हित है । यही समझ स्वार्थ को परमार्थ में बदल देती है। परमार्थ वह है जहां स्वार्थ परार्थ का विरोधी नहीं होता, अपितु जहां परार्थ स्वार्थ का सहायक होता है अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि परमार्थ में स्वार्थ और परार्थ के बीच की दीवार ही गिर जाती है। अब तक की अर्थ व्यवस्था स्वार्थ और परार्थ की भाषा को लेकर चलती है। समय आ गया है कि अर्थ व्यवस्था को परमार्थ के आधार पर खड़ा किया जाये F ऐसी अर्थ व्यवस्था में हम जब यह सोचेंगे कि इस प्रक्रिया से अमुक का लाभ हो रहा है तो अमुक की हानि भी हो रही है, तब हमारा आदर्श थोड़ों के लिए बहुतों के हित का बलिदान तो होगा ही नहीं, जैसा कि पूंजीवादी व्यवस्था में होता है, साथ ही बहुतों के हित के लिए थोड़ों के हित का भी हनन नहीं करेंगे, जैसाकि समाजवाद में होता है। अर्थ के परमार्थीकरण का अभिप्राय होगा-“सर्वजनसुखाय सर्वजनहिताय" न कि "बहुजनहिताय बहुजनसुखाय।” यह तब होगा जब न केवल जाति, वर्ण या सम्प्रदाय की दीवारें टूट जाये बल्कि राष्ट्र की दीवारें भी टूटकर पृथ्वी सूक्त का यह उद्घोष साकार हो जाये कि भूमि मेरी मां है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं " माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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