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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन आवश्यक नहीं हैं। लेकिन जीवन का स्तर उठाने के लिए उन चीजों का होना आवश्यक मान लिया गया है। स्वस्थ, समर्थ, कार्यकुशल और बुद्धिमान् व्यक्ति अल्प परिग्रह में भी जितना सम्मान पा सकता है, उतना सम्मान वह परिग्रह के बढ़ाने से नहीं पा सकता। थोड़ा-सा गहराई में जायें तो पता चलेगा कि पद प्रतिष्ठा और पैसा ऊपरी सम्मान ही दिलवा सकता है। हार्दिक सम्मान तो मनुष्यता को ही मिलता है। जन प्रतिनिधियों का दायित्व ___ कहा जा सकता है कि यह सब बातें सैद्धान्तिक हैं, इन्हें व्यवहार में कैसे लाया जाये? उत्तर यह है कि सामान्य लोग बड़े लोगों की नकल किया करते हैं। प्रजातंत्र में जन-प्रतिनिधि ही बड़े माने जाते हैं। वे संख्या में अधिक नहीं होते। यदि वे स्वयं से प्रारम्भ कर सकें तो यह कोई घाटे का सौदा सिद्ध नहीं होगा। आम आदमी में जो यह धारणा बनती जा रही है कि उनके द्वारा चुने गये प्रतिनिधि लूट खसोट में लगे हैं, यह उन जन-प्रतिनिधियों के लिये अच्छी बात नहीं है। स्वार्थ को परमार्थ में बदलें माना जाता है कि मनुष्य स्वार्थी है, किंतु इससे भी बड़ा सच यह है कि जो मनुष्य अपने स्वार्थ के दायरे को जितना अधिक विस्तृत कर पाता है, वह उतना ही आगे बढ़ जाता है। जब तक हमारा स्वार्थ परमार्थ में न बदले तब तक वह एक घुटन ही पैदा करता है। हमें उन्मुक्त वातावरण में सांस नहीं लेने देता। यदि हम परमार्थ को थोड़ा भी विस्तृत कर सकें तो वही पैसा, जो स्पर्धा और संघर्ष का कारण बनता है, स्नेह और सहयोग का माध्यम बन सकता है। यह बात युगों से कही जा रही है किंतु आज इस बात का अर्थ कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि विज्ञान के कारण हम एक-दूसरे के इतने अधिक निकट आ गये हैं कि अब किसी को पराया मानने की पुरानी पद्धति असंगत बन गई है और इस निकटता के कारण किसी को भी नुकसान पहुंचाने का परिणाम बड़ी त्वरित गति से हमें ही भोगना पड़ जाता है। भगवान् महावीर ने कहा था कि तुम जिसकी हिंसा करना चाहते हो वह तुम स्वयं ही हो । यह बात मुख्यतः आध्यात्मिक स्तर पर की गई थी। आज भौतिक धरातल पर भी यह बात प्रत्यक्ष गोचर हो रही है। जंगलों को काटने से वनस्पतिकाय की हिंसा होती है, लेकिन अनावृष्टि या बाढ़ के रूप में जंगलों के कटने का दुष्परिणाम स्वयं हमें भी भोगना पड़ जाता है। औद्योगीकरण ने जहां शोषण को प्रोत्साहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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