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तृतीय अध्याय रंगों की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति
जैन साहित्य में लेश्या का सिद्धान्त अपनी मौलिक अवधारणा के साथ प्राणीमात्र के भाव जगत् का उल्लेख करता है । यद्यपि प्राचीन आचार्यों ने इसके सैद्धान्तिक पक्ष पर ज्यादा प्रकाश डाला, इसलिये सम्पूर्ण वाङ्मय में कर्म से जुड़ा लेश्या का गहरा व सूक्ष्म विश्लेषण अधिक उपलब्ध है जबकि मनोविज्ञान के सूत्रों की व्याख्या कम उपलब्ध होती है। आज यदि हम लेश्या के भावात्मक पक्ष की रंग मनोविज्ञान के सिद्धान्तों और अनुभवों के साथ तुलना करें तो लेश्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण स्वयं मनुज मन की व्याख्या में एक सार्थक सिद्धान्त सिद्ध हो सकता है।
रंग विज्ञान के अध्येताओं ने रंग के अस्तित्व को जीवन के हर कोण से देखा, जाना और अनुभव किया। उसके प्रायोगिक परिणामों ने व्यक्तित्व के गुण-दोषों की मीमांसा की। एक ओर रंग का आध्यात्मिक अर्थ ब्रह्माण्डीय किरणों (Cosmic Rays) से जोड़ा गया तो दूसरी ओर त्रिपार्श्व कांच (Prism) द्वारा अभिव्यक्त होने वाली सप्त रंगीन-किरणों का मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा तीनों के साथ संबंध स्थापित किया गया। लेश्या के रंग मनोविज्ञान के सन्दर्भ में आधुनिक रंगविज्ञान द्वारा रंग प्रभावों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण महत्त्वपूर्ण है।
रंग एक माध्यम है हमारे विचारों, आदर्शों, संवेगों, क्रियाओं और इन्द्रिय जन्य ज्ञान/अनुभूति को अभिव्यक्त करने का। रंग में वह ऊर्जा है जो स्वास्थ्य, विश्राम, प्रसन्नता और सुरक्षा को प्रभावित करती है । फेबर बिरेन (Faber Birren) रंग को संवेदन, ज्ञान और चिन्तन का परिणाम मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि साउथऑल (Southall) का मानना है कि रंग न तो चमकदार वस्तु का गुण है और न ही चमकदार विकिरण का, यह सिर्फ चेतना का विषय है।'
रंग की जागरूकता एक मानसिक प्रक्रिया है, क्योंकि रंग हमारी चेतना का हिस्सा है। जब पदार्थ की किरणें हमारी आंखों पर पड़ती हैं तो यह संवेदन मस्तिष्क तक जाता है और हम रंग को पहचानने लगते हैं। इसका कारण यह है कि हमारे भीतर पहले से
1. Faber Birren, Colour Psychology and Colour Therapy, p. 184
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