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________________ 80 लेश्या और मनोविज्ञान में जातिस्मृतिज्ञान उपलब्ध हुआ।' केवल मनुष्य ही नहीं, तिर्यञ्च तक को आत्म गवेषणा के क्षणों में जातिस्मृति ज्ञान होता है और उस समय उनके भी अध्यवसाय, परिणाम और लेश्या शुभ होती है। औपपातिक सूत्र में उल्लेख मिलता है कि वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि के साथ अवधि ज्ञान-लब्धि की प्राप्ति तथा ज्ञातासूत्र के अनुसार चतुर्दश पूर्वो की विद्या प्राप्ति प्रशस्त अध्यवसाय, शुभ परिणाम और विशुद्ध लेश्या में होती है। परिणामों की विशुद्धता अविधज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में भी अत्यावश्यक मानी गई है। भगवान महावीर को छद्मस्थावस्था के पांचवें चातुर्मास में भद्दिलपुर नगर में शुभ अध्यवसाय आदि से लोक प्रमाण अवधिज्ञान प्राप्त हुआ था। प्रज्ञापना में लिखा है कि कृष्णलेशी के दो ज्ञान - मति, श्रुतज्ञान, तीन ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि या मन:पर्यवज्ञान होते हैं । यही क्रम पद्मलेशी तक होता है। शुक्ललेशी के दो, तीन, चार, ज्ञान हो तो कृष्णलेशी के समान और एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है। प्रश्न उभरता है कि कृष्ण लेश्यावान में मनःपर्यवज्ञान कैसे? यह ज्ञान तो अति विशुद्ध परिणाम वाले व्यक्ति को होता है और कृष्णलेश्या संक्लेशमय परिणाम रूप होती है। ऐसी स्थिति में कृष्णलेश्या वाले जीव में मन:पर्यवज्ञान कैसे सम्भव हो सकता है ? इसका समाधान दिया गया कि प्रत्येक लेश्या के अध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेश जितना है उनमें से कोई-कोई मन्द अनुभाव वाले अध्यवसाय स्थान होते हैं जो प्रमत्तसंयत में पाए जाते हैं। यद्यपि मन:पर्यवज्ञान अप्रमत्तसंयत के ही उत्पन्न होता है परन्तु उत्पन्न होने के वाद वह प्रमत्तदशा में भी रहता है। इस दृष्टि से कृष्णलेश्या वाला जीव भी मन:पर्यवज्ञानी हो सकता है। केवलज्ञान सिर्फ शुक्ल लेश्या में ही हो सकता है अन्य किसी में नहीं। अतः लेश्याविशुद्धि से जीव ज्ञान की उत्कृष्टता प्राप्त करता है। आत्मविशुद्धता का संबंध व्यक्ति के भीतरी पक्षों से जुड़ा है। बाहिर की शुद्धि ही नहीं, आन्तरिक शुद्धि भी अर्थपूर्ण है। अत: कहा जा सकता है कि अध्यवसाय, लेश्या और परिणामों की शुद्धता पर जीवन की श्रेष्ठता आधारित है। ज्ञातासूत्र 8/181 - अंगसुत्ताणि भाग-3, पृ. 193 2. औपपातिक सूत्र 119 अंगसुत्ताणि खण्ड-1, पृ. 59 3. ज्ञातासूत्र 14/83 अंगसुत्ताणि भाग-3, पृ. 264 4. आवश्यक नियुक्ति गाथा - 486; 5. प्रज्ञापना 17/1216 6. प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्रांक 357 । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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