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लेश्या और मनोविज्ञान
अध्यवसाय, लेश्या और परिणाम
अचेतन मन के संस्कारों की विशुद्धि के सन्दर्भ में लेश्या, अध्यवसाय और परिणाम का परस्पर घनिष्ठ संबंध ज्ञातव्य है। जहां परिणाम शुभ होते हैं और अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं वहां लेश्या विशुध्यमान होती है और जहां परिणाम अशुभ और अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं, वहां लेश्या अविशुध्यमान होती है। आगमों में विशुद्धि के सन्दर्भ में इन तीनों का एक साथ प्रयोग अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।
शुभ-अशुभ परिणाम आत्मा की क्रियात्मक शक्ति के प्रवाह हैं। दोनों एक साथ नहीं रहते, पर दोनों में से एक अवश्य रहता है। कर्मशास्त्र की भाषा में शरीर नाम कर्म के उदयकाल में चंचलता रहती है। उसके द्वारा कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है। कायऋजुता, भावऋजुता, भाषाऋजुता और अविसंवादयोग रूप शुभ परिणति के समय शुभ और अशुभ परिणति के समय अशुभ कर्मपरमाणुओं का आकर्षण होता है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं -
लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होई जीवस्स ।
अज्झवसाणविसोधी, मन्दकसायस्स णादव्वा ॥ __ जिसके मोह, राग-द्वेष होते हैं उनके अशुभ परिणाम होते हैं और जिसके चित्तप्रसाद निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होता है। जैन सिद्धान्त मानता है कि लेश्या की शुद्धि अध्यवसाय से होती है और अध्यवसाय की शुद्धि मन्द कषाय से।'
अध्यवसाय लेश्या से सूक्ष्म होता है इसलिए जहां पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं, वहां अध्यवसाय प्रशस्त/अप्रशस्त दोनों होते हैं। अध्यवसाय सीधा आत्मा के आन्तरिक स्तर से यानी स्वभाव से जुड़ा है। ____ आचारांग में उल्लेख मिलता है कि भगवान महावीर ने अभिनिष्क्रमण के समय जब पालकी में आरोहण किया, उस समय उनके दो दिन का उपवास था, अध्यवसाय शुभ थे और लेश्यायें विशुद्धमान थीं। विशुद्धि की उत्कृष्टता पर आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि सम्यक्त्व श्रुत की प्राप्ति सब लेश्याओं में होती है परन्तु चरित्र की प्राप्ति तीन शुभ लेश्याओं में होती है और चरित्र की प्राप्ति के बाद छहों में से कोई भी लेश्या हो सकती है।
जैन दर्शन का कर्मसिद्धान्त मिथ्यात्वी में भी छहों लेश्याओं की अवस्थिति मानता है। यद्यपि नारकी में तीन अशुभ लेश्याएं और देवता में शुभ लेश्याएं मानी गई हैं परन्तु प्रज्ञापना की टीका में कहा गया है कि भावपरावृत्ति होने से देव और नारक में भी छ: लेश्याएं होती हैं।
3. भगवती 24/12, 25
1. पंचास्तिकाय, 2/131; 2. भगवती आराधना 1905; 4. आचारांग 2/15/121; 5. आवश्यक नियुक्ति 882 6. प्रज्ञापना 17/5/1251 टीका में उद्धृत
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