________________
उपसंहार
प्रणालियां निर्धारित करता है - 1. औदायिक प्रणाली 2. क्षायोपशमिक प्रणाली । मनोविज्ञान की भाषा में इन्हें क्रमश: "स्टिमुलेशन ऑफ टेन्शन" और "सब्लीमेशन ऑफ इमोशन्स" कहा जा सकता है। उपरोक्त दोनों प्रणालियां तब तक चालू रहती हैं, जब तक व्यक्ति कर्ममुक्त नहीं हो जाता।
यदि केवल यह मान लिया जाए कि अचेतन मन में दमित इच्छाएं और वासनाएं ही हैं तो व्यक्तित्व का रूप भद्दा होगा। जबकि ऐसा होता नहीं। गहन मनोविज्ञान (Depth Psychology) अचेतन मन तक आकर रुक गया जबकि जैन दर्शन ने कर्मशास्त्रीय मीमांसा में इससे आगे सूक्ष्मशरीर की चर्चा की। उसने प्रतिपादित किया "कम्मुणा उवाही जायई " व्यक्ति जो कुछ करता है, उसके पीछे कर्म की प्रेरणा है। यही प्रेरक तत्त्व समस्त आचरणों का मूल स्रोत है । कर्म जब उदय में आते हैं, उनका विपाक होता है तब सारा आचरण उसके आधार पर चलता है । कर्मशास्त्र जिसे कर्मविपाक कहता है, मनोविज्ञान की भाषा में वही दमित इच्छाओं का उभार है 1
213
काम और राग में अन्तर कहाँ
लेश्यादर्शन और मनोविज्ञान समान रेखा पर खड़े हैं । इन दोनों में अन्तर केवल व्याख्या के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का है। मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने जिस अर्थ में काम (Sex) को प्राणीमात्र की मौलिक मनोवृत्ति माना, उसी अर्थ में जैन-दर्शन राग की व्याख्या करता है ।
काम और राग के विश्लेषण में इतना वैशिष्ट्य है कि फ्रायड काम के मूल कारणों की मीमांसा नहीं करता जबकि जैन दर्शन राग के मूल स्रोत तक पहुंचा है। राग के पीछे मूर्च्छा है, मूर्च्छा के पीछे कर्म संस्कार और कर्म के साथ जुड़ा है हमारा भाव और भाव के साथ जुड़ी है चेतना की शुद्धता / अशुद्धता यानी अध्यवसायों की प्रशस्तता/अप्रशस्तता ।
दिगम्बर आम्नाय के प्रमुख ग्रंथ पंचास्तिकाय में संसार चक्र का उल्लेख मिलता है कि संसारस्थ प्राणी के राग-द्वेषमय परिणाम होते हैं। इन परिणामों से नए कर्मों का बन्धन होता है। कर्मों से प्राणी विविध गतियों की यात्रा करता है। नरक आदि गतियों में उसे शरीर प्राप्त होता है । शरीर के साथ इन्द्रिय- क्षमता और इन्द्रियों के साथ उसके रूप, रस, गन्ध आदि विषय प्राप्त करता है । विषय-ग्रहण के पश्चात् फिर राग-द्वेषमय संस्कार सक्रिय हो जाते हैं। इस प्रकार जीव संसार चक्र में निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है ।
हमारा चैतन्य तीन भूमिकाओं में कार्य करता है - शुभ, अशुभ और संवर । शुभ की भूमिका में पुण्य, अशुभ की भूमिका में पाप का कोष निरन्तर भरता रहता है। कोष के अनुरूप ही लेश्या प्रशस्त - अप्रशस्त होती रहती है। संवर की भूमिका इन दोनों से पृथक् है । चित्त और मन
लेश्या का अध्ययन करते समय चित्त और मन के बीच स्पष्टतः भेद सीमा को समझा गया है। मन और चित्त एकार्थक होते हुए भी एक नहीं हैं। यदि इन्हें एक समझ लिया जाए तो अज्ञात मन की व्याख्या नहीं की जा सकती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.