SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 198 लेश्या और मनोविज्ञान डॉ. बेबीट (Dr. Babbitt) जो चिकित्सा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण क्रान्ति के जनक माने गए हैं, उन्होंने अपने शोध निष्कर्ष में कहा है कि कुछ बीमारियाँ भौतिक स्तर पर शुरू होकर आध्यात्मिक स्तर को प्रभावित करती हैं और कुछ आध्यात्मिक स्तर पर प्रारम्भ होकर शारीरिक स्तर को प्रभावित करती हैं। तनावपूर्ण शारीरिक स्थिति के लिये हमारे असन्तुलित विचार और भावनाएं जिम्मेवार हैं । वे चाहे चेतन स्तर पर हों या अचेतन स्तर पर, वर्तमान हों या अतीत, प्रिय हों या अप्रिय सदा हमारे जीवन व्यवहार को प्रभावित करते रहते हैं। घृणा, भय, चिन्ता, अशान्ति, वासना आदि विविध रूपों में हमारा तनाव अभिव्यक्त होता है। आवरण-शुद्धि और करण-शुद्धि - अध्यात्म के क्षेत्र में चैतन्यकेन्द्रों से जुड़ी दो बातें विशेष महत्त्व रखती हैं - 1. आवरण शुद्धि 2. करण शुद्धि। आवरण शुद्धि यानी मोहकर्म के संचित पुद्गलों का क्षय अथवा क्षयोपशम और करणशुद्धि यानी आवरणशुद्धि के प्रकटीकरण का शारीरिक माध्यम । शुभ भावों से होने वाली आवरण शुद्धि सम्पूर्ण चैतन्य में होती है, पर उसका प्रकाश शरीर प्रदेशों को करण बनाए बिना बाहर नहीं जा सकता। आवरण शुद्धि के साथ शरीर प्रदेशों का शुद्ध होना भी बहुत जरूरी है। आवरणशुद्धि और करणशुद्धि दोनों जब एक साथ होते हैं तो लेश्या बदलती है, चरित्र बदलता है। बुराइयां कहां पैदा होती हैं? - लेश्या सिद्धान्त के अनुसार कृष्ण, नील और कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं में मनुष्य की बुरी आदतें, बुरे विचार, बुरे आचरण जन्म लेते हैं। प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में लिखा है कि अविरति, क्षुद्रता, निर्दयता, नृशंसता, अजितेन्द्रियता कृष्णलेश्या के परिणाम हैं। ईर्ष्या, कदाग्रह, अज्ञान, माया, निर्लज्जता, विषयवासना, क्लेश, रसलोलुपता - ये नील लेश्या के परिणाम हैं । वक्रता, वक्र आचरण, अपने दोषों को ढांकने की वृत्ति, परिग्रह भाव, मिथ्या दृष्टिकोण, दूसरों के मर्म प्रकाशन की आदत, अप्रिय कथन - कापोत लेश्या के परिणाम हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने अपनी पुस्तक आभामण्डल में आत्मविवेक ग्रंथ को उद्धृत करते हुए लिखा है कि क्रूरता, वैर, मूर्छा, अवज्ञा और अविश्वास - ये सब स्वाधिष्ठान चक्र में उत्पन्न होते हैं । तृष्णा, ईर्ष्या, लज्जा, घृणा, भय, मोह, कषाय और विषाद मणिपुर चक्र में तथा अनाहत चक्र में लोलुपता, तोड़फोड़ की भावना, आशा, चिन्ता, ममता, दम्भ, अविवेक, अहंकार जन्म लेते हैं।' जैन आगमों ने मोहनीय कर्म की प्रवृत्तियों के प्रकट होने का स्थान नाभि के आसपास माना है। आज मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान के क्षेत्र में भी इस विषय पर काफी खोज हो रही है। एलेक्स जोन्स ने निम्न और उच्च केन्द्रों पर होने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों का उल्लेख 1. E.D. Babbitt, The Philosophy of Cure, An Exhaustive Survey Compiled by Health Research, Colour Healing, p. 29 2. आचार्य महाप्रज्ञ - आभामण्डल, पृ. 53 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy