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चैतन्य केन्द्र- प्रेक्षा
प्रेक्षाध्यान पद्धति का एक प्रयोग है - चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा । यह शरीर प्रेक्षा का विकसित रूप है। चैतन्य- केन्द्र शरीर के महत्त्वपूर्ण भाग हैं. जहां हमारी चेतना घनीभूत होकर रहती है । यद्यपि जैन दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण शरीर में चैतन्य व्याप्त रहता है किन्तु शरीर
प्रत्येक कण को जागृत कर पाना आसान नहीं होता, इसलिए शरीर के कुछ केन्द्र जहां से चेतना की रश्मियां बाहर सहजतः आ सकती हैं, उन्हें जागृत करने हेतु प्रेक्षा का प्रयोग जरूरी है।
प्राचीन साहित्य में चैतन्य केन्द्रों की चर्चा मिलती है। तंत्र शास्त्र और हठयोग में जिनको चक्र कहा गया, शरीर शास्त्रियों ने शरीर में विशेष अन्तःस्रावी ग्रंथियों की खोज की। प्रेक्षाध्यान की भाषा में इन्हीं को चैतन्यकेन्द्र का नाम दिया गया है। आज की भाषा में जहां-जहां शरीर में विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड) माना गया है, वहांवहां चैतन्यकेन्द्र हैं ।
चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा कोरी काल्पनिक ध्यान पद्धति नहीं। इसके साथ आगमिक आधार जुड़ा है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आगम मन्थन कर लिखा है प्राचीन जैन साहित्य में चैतन्यकेन्द्रों के मूल स्रोत को अवधिज्ञान के विश्लेषण में खोजा जा सकता है। प्रज्ञापना में अवधिज्ञान के दो प्रकार उपलब्ध है - 1. देशावधि 2. सर्वावधि । नन्दीसूत्र में देशावधि, सर्वावधि का उल्लेख नहीं मिलता, वहां केवल परमावधि का वर्णन उपलब्ध होता है। गोम्मटसार में अवधिज्ञान के तीन प्रकार बतलाए गए हैं 1. देशावधि, 2. सर्वावधि 3. परमावधि ।
लेश्या और मनोविज्ञान
नन्दीसूत्र में अवधिज्ञान के छह प्रकार किए गए हैं। उनमें पहला प्रकार है अनुगामिक। यह विषय अन्य किसी भी आगम में उपलब्ध नहीं है। प्रतीत होता है कि देवर्द्धिगण ने पूरा प्रकरण ज्ञान प्रवाद पूर्व से लिया था । इस दृष्टि से नन्दी सूत्र का मुख्य आधार ज्ञान प्रवाद पूर्व हो सकता है। स्थानांग, समयवायांग, भगवती आदि इसके आधार नहीं हो सकते।
कहा जाता है कि तंत्रशास्त्र और हठयोग में चक्रों की व्याख्या है पर जैन साहित्य में उनका निरूपण नहीं मिलता । नन्दीसूत्र के अवधिज्ञान विषय प्रकरण से इस प्रश्न का समाधान उपलब्ध होता है कि जैन साहित्य में भी चक्रों का चैतन्यकेन्द्र के रूप में वर्णन था, भले ही ध्यान की पद्धति मध्यकाल में छूट जाने से उनकी विस्तृत व्याख्या आज उपलब्ध न हो पाए ।
1. प्रज्ञापना 33/33; 3. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा -
2. नन्दीसूत्र, 18, गाथा - 2
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