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________________ जैन साधना पद्धति में ध्यान 183 की गति को बदलकर यह संख्या घटाई जाती है। साधारण अभ्यास के बाद यह संख्या एक मिनिट में 10 से कम तक की जा सकती है और विशेष अभ्यास के बाद उसे और अधिक कम किया जा सकता है। दीर्घश्वासप्रेक्षा में श्वास-संयम का अभ्यास भी महत्त्वपूर्ण है। गहरा, लम्बा और लयबद्ध श्वास मन को शांत करता है। इसके साथ-साथ आवेश, कषाय, उत्तेजनाएं, वासनाएं शांत होती है। श्वास जब छोटा होता है, तब वासनाएं उभरती हैं, इन सब दोषों का संवाहक है - श्वास। श्वास इन सबसे प्रभावित होता है। जो व्यक्ति श्वास को देखता है, उसका तनाव अपने आप विसर्जित हो जाता है। समवृत्ति श्वासप्रेक्षा - समवृत्ति श्वासप्रेक्षा में श्वास की गति-परिवर्तन के साथ-साथ श्वास की दिशा को बदला जाता है। बायें नथुने से श्वास लेकर दायें से निकालना और दायें से लेकर बायें से निकालना और इसे देखना, इसकी प्रेक्षा करना, इसके साथ चित्त का योग करना समवृत्तिश्वासप्रेक्षा है। समवृत्ति श्वासप्रेक्षा के माध्यम से चेतना के विशिष्ट केन्द्रों को जागृत किया जा सकता है। इसका सतत अभ्यास अनेक उपलब्धियों में सहायक होता है। स्वरोदय में कहा गया - यदि गर्म प्रकृति का कोई काम करना है तो दायां स्वर चलना चाहिए। ठण्डे दिमाग से काम करना है, सौम्य और शांत काम करना है तो बायां स्वर चलना चाहिए। जब दोनों एक साथ चलने लग जाते हैं तब समता की, ध्यान की, समाधि की सी स्थिति बनती है। अत: श्वास की गति और दिशा के नियन्त्रण की क्षमता अर्जित करने के लिए समवृत्ति श्वासप्रेक्षा एक सफल प्रयोग है। दीर्घश्वास प्रेक्षा से तीन बातें फलित होती हैं - 1. जागरूकता 2. साक्षीभाव 3. श्वास की मन्दता। साधना के प्रारम्भ में इन बातों की अनुभूति साधक के मन में आत्मविश्वास जगा देती है। अपने प्रति विश्वास जगने का अर्थ है अपनी शक्तियों का बोध और उनके उपयोग की क्षमता। दीर्घश्वास प्रेक्षा से आदमी आत्मकेन्द्रित बनता है। श्वाससंयम मानसिक शांति और विचार के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। शरीर प्रेक्षा - श्वास समूचे शरीर तंत्र को प्रभावित करता है। वह प्राण, चेतना, इन्द्रिय, मन, चित्त सबको प्रभावित करता है। इसलिए श्वास का पहला स्थान है, शरीर का दूसरा स्थान। जैन-दर्शन मानता है कि आत्मा शरीरव्यापी है। जितना शरीर का आयतन है उतना ही आत्मा का आयतन है। जितना आत्मा का आयतन है उतना ही चेतना का है। शरीर के कणकण में चैतन्य व्याप्त है। प्रत्येक कण में होने वाले संवेदनों की प्रेक्षा करते-करते प्राणी अपने स्वरूप को, अस्तित्व को, स्वभाव को जानता है और देखता है। उसमें सूक्ष्म पर्यायों को पकड़ने की क्षमता आ जाती है। 1. आचार्य तुलसी (गणाधिपति) - प्रेक्षा अनुप्रेक्षा, पृ. 101 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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