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________________ लेश्या और मनोविज्ञान आचार्य हरिभद्र एक बहुश्रुत आचार्य थे। उन्हें जैन परम्परा के साथ-साथ अन्य समकालीन परम्पराओं का भी अधिकृत ज्ञान था। अपने साहित्य सृजन में उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टि का पूरा-पूरा उपयोग किया। फलतः जैन साधना पद्धति के साथ अन्यान्य पद्धतियों की भी कई बातें जुड़ गईं। कालान्तर में समन्वयात्मक दृष्टि के अभाव में आगे चलकर जैन साधना पद्धति की मौलिकता गौण हो गई। हठयोग, तंत्र साधना आदि का प्रभाव भी प्रत्यक्ष रूप में जैन साहित्य में दृष्टिगत होने लगा। पिंडस्थ, पदस्थ आदि ध्यान पार्थिवी, आग्नेयी आदि धारणाओं का प्रयोग एवं प्राणायाम के विविध प्रकारों का समावेश इस विषय का स्पष्ट निर्देशन है। जैनधर्म में अनेक साधना पद्धतियां हैं और उनके ध्यान के प्रयोग हैं । उनमें प्रेक्षाध्यान भी एक ध्यान है जिसे जैन दर्शन के आधार पर विकसित किया गया है। 166 जैन सम्प्रदाय तेरापंथ के आचार्य श्री तुलसी (गणाधिपति) अपने समय के एक क्रान्तिकारी आचार्य हैं। उनकी दृष्टि प्राचीनता और नवीनता दोनों का बराबर एक साथ समाकलन करती रही है। आचार्यश्री ने देखा कि भगवान बुद्ध की ध्यान परम्परा विपश्यना साधना पद्धति के रूप में आज भी चल रही है, तब उन्हीं के समकालीन भगवान महावीर की ध्यान परम्परा जैनों ने क्यों विस्मृत कर दी ? इस प्रश्न के साथ एक संकल्प उनके अन्त:करण में उभरा कि हमें भगवान महावीर की साधना पद्धति का संधान करना है। उन्होंने अपने शिष्य मुनि नथमलजी जो अब आचार्य महाप्रज्ञ बन चुके हैं, को अपना संकल्प बताया और उन्हें इस कार्य के लिए नियुक्त किया। वे आगमों के अनुशीलन, वर्तमान में प्रचलित ध्यान परम्पराओं के अध्ययन एवं वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन कर निष्कर्ष तक पहुंचे। कहा जा सकता है कि आगमों के गहरे अध्ययन के बाद निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग एवं अनुभव के साथ इस ध्यान पद्धति को आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुति दी गई है 1 प्रेक्षाध्यान की चर्चा करने से पूर्व हमें यह भी जान लेना जरूरी है कि ध्यान क्या है ? वह क्यों किया जाता है ? ध्याता की क्या-क्या योग्यताएं हैं, आदि । ध्यान क्या ? जैन साधना पद्धति का मूल आधार है - संवर और निर्जरा। उनका मार्ग है तप और तप का प्रधान अंग है - ध्यान । इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है ।' जैन योग साधना पद्धति में ध्यान को सर्वोपरि माना है। इसे आत्मदर्शन की प्रक्रिया कहा है। जैसे पाषाण में स्वर्ण और काष्ठ में अग्नि बिना प्रयोग नहीं दीखती, वैसे ही बिना ध्यान आत्मदर्शन नहीं होता । 1. झाणज्झयणं 96 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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