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सप्तम अध्याय
जैन साधना पद्धति में ध्यान
चेतना का उत्कर्ष लेश्या की विशुद्धता पर निर्भर है । जब-जब लेश्या में मलिनता आती है, हमारी चेतना अपकर्ष की ओर गतिशील हो जाती है। जैन साधना पद्धति में स्वाध्याय, तप आदि अनेक उपायों में ध्यान को लेश्या-विशुद्धि का एक महत्त्वपूर्ण उपाय माना गया है। भगवान महावीर का सम्पूर्ण जीवन ध्यान और तपस्या के विशिष्ट प्रयोगों की प्रयोगभूमि रहा है। आचारांग सूत्र के नौवें अध्ययन में हमें इस विषय की एक संक्षिप्त झलक मिलती है। गणधर गौतम के जिज्ञासा करने पर भगवती सूत्र में भी भगवान महावीर ने अपने ध्यान प्रयोगों की संक्षिप्त चर्चा की है। सूत्रकृतांग सूत्र में भगवान महावीर की श्रेष्ठ ध्याता के रूप में स्तुति की गई है - अणुत्तरं झाणवरं झियाइ। __ जैन आगम ग्रंथों में हमें कोई ऐसा आगम ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता जिसमें विस्तार से ध्यान का विवेचन किया गया हो। नन्दी सूत्रकार ने आगमों की सूची प्रस्तुत करते हुए ध्यान-विभक्ति नाम के एक स्वतंत्र ग्रंथ का नामोल्लेख किया है। पर संप्रति वह ग्रंथ अनुपलब्ध है। आज हमें आगमों एवं उनके व्याख्या साहित्य में ध्यान विषयक जो सामग्री उपलब्ध है, वह प्रकीर्ण रूप में ही है। आगमों में अनेक स्थलों पर मुनियों के "ध्यानकोष्ठोपगत" विशेषण का प्रयोग किया गया है। केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए शुक्लध्यान में अवस्थिति अनिवार्य बतलाई गई है। पूर्वो का विशिष्ट ज्ञान भी तब ही प्राप्त होता है, जब साधक ध्यान की विशिष्ट भूमिकाओं में आरोहण करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। विशिष्ट ध्यान के कारण ही साधक चौदह पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि का अन्तर्मुहूर्त में परावर्तन कर सकता है। संवरध्यानयोग शब्द का प्रयोग भी हमें प्राचीन साहित्य में उपलब्ध होता है। ___ भगवान महावीर की यह परम्परा विक्रम की 8वीं शताब्दी तक प्राय: अपने मूलरूप में रही। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, भद्रबाहु, पूज्यपाद, योगेन्दु जिनभद्रगणी, क्षमाश्रमण आदि का साहित्य इस दृष्टि से हमारे लिए एक दिशा-सूचक यंत्र के रूप में है। प्रवचनसार, समयसार, तत्त्वार्थसूत्र, ध्यानशतक, कायोत्सर्ग शतक आदि में ध्यान की जो चर्चा हुई है, उसका मुख्य आधार आगमों में वर्णित ध्यान विषयक वर्गीकरण ही है।
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