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________________ लेश्या और मनोविज्ञान कर्म की दृष्टि से चार जातियां प्रतिपादित कीं 1. कृष्ण, 2. शुक्ल कृष्ण, 3. शुक्ल, 4. अशुक्ल - अकृष्ण, जो क्रमश: अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। तीन कर्म जातियां सभी में होती हैं पर चौथी अशुक्ल - अकृष्ण जाति योगी में होती है ।' प्रस्तुत सूत्र पर भाष्य करते हुए व्यासदेव ने लिखा है कि उनका कर्म कृष्ण होता है, जिनका चित्त दोष- कलुषित या क्रूर होता है। पीड़ा और अनुग्रह दोनों विधाओं से मिश्रित कर्म ' शुक्ल- कृष्ण' कहलाता है । ये बाह्य साधनों द्वारा साध्य होते हैं । तप, स्वाध्याय और ध्यान में निरत व्यक्तियों के कर्म केवल मन के अधीन होते हैं । उनमें बाह्य साधनों की किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा दी जाती है । एतदर्थ यह कर्म शुक्ल कहा जाता है। जो पुण्य के फल की आशंका नहीं करते, उन क्षीणक्लेश चरमदेह योगियों के 'अशुक्लअकृष्ण' कर्म होता है। 6 लेश्या सिद्धान्त की ऐतिहासिकता आज भी विमर्शनीय है। प्राचीन जितने भी प्रामाणिक स्रोत हैं, ग्रंथ और साहित्य हैं, उनके आधार पर लेश्या सिद्धान्त को जैन-दर्शन की मौलिक मान्यता माना जा सकता है। - डॉ. ल्यूमेन और डॉ. हरमन जेकोबी ने अपने अनुसन्धान के आधार पर जो यह मान लिया था कि लेश्या का सिद्धान्त आजीवकों से लिया हुआ है, इस संदर्भ में लगता है कि इन विद्वानों के सामने लेश्या सिद्धान्त की परम्परा नहीं थी। उनमें प्रतिभा थी, अनुसन्धान की पैनी नजर थी, तर्क एवं कसौटियां थीं पर बिना पूरे स्रोत को जाने किसी भी विद्वान् के लिए सही और अन्तिम निर्णय संभव नहीं हो सकता। संभवतः इन विद्वानों के सामने भी यही कठिनाई रही हो। लेश्या सिद्धान्त ढाई हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है। यह निश्चित है कि यह महावीर के समय था और इसका प्रमाण है अति प्राचीन आचारांग सूत्र का यह वाक्य 'अबहिलेस्से 2 जिसकी लेश्या यानि मनोवृत्ति संयम से बाहर न जाये, उसे अबहिर्लेश्य कहा जाता है । - लेश्या सिद्धान्त भगवान पार्श्व की परम्परा से, पूर्वज्ञान की परम्परा से चला आ रहा है जिसे भगवान महावीर ने अपनाया । वस्तुतः चौदह पूर्वी के ज्ञान की अक्षयराशि में सभी विषय समाहित होते हैं। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लेश्या का सिद्धान्त पार्श्व परम्परा से चला आ रहा था और पार्श्व के ज्ञान की सारी विरासत महावीर की परम्परा को मिली, यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है । लेश्या सिद्धान्त के संदर्भ में यह कहना औचित्यपूर्ण होगा कि यह जैन-दर्शन का मौलिक संप्रत्यय है । सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय में लेश्या के सैद्धान्तिक पक्ष पर विपुल जानकारी उपलब्ध है। परन्तु इन्हें आधुनिक भाषा में प्रस्तुति नहीं मिलने के कारण लेश्या सिद्धान्त सिर्फ तात्त्विक ज्ञान का एक पक्ष बनकर रह गया । कोई भी सिद्धान्त जब तक प्रायोगिक भूमिका पर नहीं Jain Education International 1. पातञ्जल योगसूत्र, 4/7 2. आचारांग 6 / 106, ( आगम शब्दकोश, पृ. 68 ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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