SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 148 लेश्या और मनोविज्ञान व्यक्तित्व की चेतना को आश्रवों का निरन्तर प्रवाह दूषित करता है। इस कारण मनुष्य का दृष्टिकोण सही नहीं बन पाता। उसकी विपरीत बुद्धि और आग्रही मनोवृत्ति बनी रहती है। उसके मन में अन्तहीन आकांक्षाएं रहती हैं। वह परिग्रही चेतना को समेटना नहीं जानता। प्रतिक्षण प्रमाद में डूबा रहता है। खुद जागता है, पर विवेक सोया रहता है। सुविधाओं के बीच पराक्रम न कर विकास के सारे रास्ते बन्द कर लेता है । कषायों की तीव्रता के कारण संवेगों पर नियंत्रण नहीं कर पाता। भाव चेतना मलिन हो जाती है। मन, वचन और शरीर की क्रियायें भी स्थिर नहीं होतीं। योग प्रवृत्ति चंचल होने से लक्ष्य सिद्धि दुर्लभ हो जाती है। मनोविज्ञान का मानना है कि व्यक्तित्व विघटन समायोजन की क्षमता के अभाव में होता है। बिना समायोजन के शारीरिक, मानसिक और भावात्मक व्यक्तित्व के विघटन की संभावनायें बनी रहती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का मुख्य उद्देश्य रहता है - बाहरी-भीतरी आवश्यकताओं की संपूर्ति करना। जब आवश्यकताओं को परिवेश में संतुष्टि नहीं मिल पाती है तो मनुष्य उसकी संतुष्टि के लिए संघर्ष करता है । तनाव मिटाने के लिए किया गया संघर्ष जब असफल हो जाता है तो व्यक्ति भग्नाशा (frustration) का शिकार हो जाता है। इस दशा में व्यक्ति का उल्लेखनीय असामान्य व्यवहार प्रकट होता है। ___ व्यक्ति अत्यधिक क्रोधी और आक्रामक बन जाता है। समाज से दूर एकाकी जीवन जीना चाहता है। सामाजिक विद्रोह की भावना जागृत हो जाती है। बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है अथवा बीमार पड़ जाना चाहता है। सामान्य-सी समस्या के सामने झुक जाता है। हीन भावना की ग्रंथि विकसित हो जाती है। अपराध प्रवृत्ति बढ़ जाती है। मैन्डल शर्मन ने "मानसिक द्वन्द्व और व्यक्तित्व" पर सन् 1938 में लिखी पुस्तक में मानव जीवन के द्वन्द्व का मूल्यांकन करते समय तीन बिन्दुओं की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट किया - 1. किन कारणों से व्यक्ति के अन्तर्नादों (Drives) के सोपानों के सन्दर्भ में द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं ? 2. द्वन्द्व की बारम्बारता (Frequency) कैसी है ? 3. द्वन्द्व की गहनता (Intensity) कितनी है ? शर्मन का मानना है कि द्वन्द्व का संबंध किसी ऐसे अन्तर्नोद से है जो सोपान में उच्च स्थान रखता है तो द्वन्द्व भी गहन होगा और उसका प्रभाव भी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर हानिकारक होगा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy