________________
षष्ठम अध्याय
संभव है व्यक्तित्व बदलाव
मनोविज्ञान व्यक्तित्व की व्याख्या का मानक मनुष्य को चुनता है, क्योंकि मनुष्य ही वह विवेकशील प्राणी है जो अपना एवं दूसरों का अच्छा-बुरा सोच सकता है। गलत-सही का निर्णय कर सकता है। ह्रास-विकास के क्षणों में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण रख सकता है। वह संघर्ष, द्वन्द्व के क्षणों में समायोजन का सामर्थ्य भी रखता है। इसलिए व्यक्तित्वमनोविज्ञान में सारी चर्चा व्यक्ति और चरित्र से जुड़ी है। उसके विघटन और संगठन के कारकों की खोज भी की गयी है। उत्तरदायी कौन ? __ व्यक्तित्व विघटित क्यों होता है, इस प्रश्न के समाधान में कुछ विद्वानों ने वंशानुक्रम को जिम्मेदार माना है। उनके अनुसार शरीर रसायन, ग्रंथि-असमानता, जैविक रचना, रक्त प्रदूषण या केन्द्रीयस्नायु मण्डल का दूषित होना कारण है । अतृप्त तथा दमित इच्छा, अपराध, असुरक्षा की भावना, आत्मप्रदर्शन की भावना, पितृविरोधी (Oedipus), मातृविरोधी (Electra) भाव-ग्रंथियों का विकसित होना, संवेगात्मक असन्तुलन तथा दीर्घकालीन चिन्ता आदि भी विघटन के लिए जिम्मेदार तत्त्व माने गये हैं।
कुछ विद्वानों ने व्यक्तित्व-विघटन का उत्तरदायी परिस्थिति और पर्यावरण को भी माना है। मनुष्य परिस्थितियों के अनुसार ढलता है। पर्यावरण भी मानवीय स्वभाव की व्याख्या करता है। पर्यावरण का असन्तुलन शारीरिक व मानसिक असन्तुलन का कारण बनता है।
आनुवंशिकता, परिस्थिति, पर्यावरण तथा मनोवैज्ञानिक कारकों के साथ मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार को असन्तुलित बनाने का एक कारण जीन्स (Genes) भी है। वैज्ञानिक जीन-परिवर्तन की खोज में लगे हुए हैं । जीन के साथ-साथ रासायनिक परिवर्तन भी व्यक्तित्व की बदलती मनोदशाओं का कारण बनता है।
जैन-दर्शन इन सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारण कर्म को मानता है जो अध्यवसायों के आधार पर शुभ-अशुभ लेश्याओं की संरचना करता है। अशुभ लेश्याओं में मनुष्य का व्यक्तित्व विघटित, असन्तुलित, असमायोजित होता है। चिन्तन, भाषा और कर्म की दिशायें बदलती हैं। आचरण में बदलाव आता है।
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org