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________________ व्यक्तित्व और लेश्या 143 महत्त्वाकांक्षा रखता है। पाप को पाप समझते हुए भी उसका आचरण करता है। जो सोचता है, वैसा कहता नहीं है और जैसा कहता है, वैसा करता नहीं है, क्योंकि इसका कारण होता है - मिथ्या दृष्टिकोण। मिथ्यात्व की सत्ता में चैतन्य का विकास, प्रज्ञा का जागरण सम्भव नहीं होता। अज्ञान में आदमी मूढ़ बना रहता है। मिथ्यात्व की उपस्थिति में मनुष्य की अन्तहीन आकांक्षायें बढ़ती हैं। प्रमाद भी हावी होता है। क्रोध आदि आवेग भी अपना प्रभाव डालते हैं और चंचलता भी बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में प्राणी संयम की ओर बढ़ नहीं सकता। इसीलिए अशुभलेशी व्यक्तित्व का एक लक्षण बतलाया गया कि वह आश्रव प्रवृत्त होता है। क्षायोपशमिक व्यक्तित्व - यह आत्म विकास की ओर अग्रसर रहता है। इसमें अध्यवसायों की प्रशस्तता और लेश्या का विशुद्धीकरण होता है। कर्मों के क्षय और उपशम के साथ उदय की प्रक्रिया भी इसमें चालू रहती है। जैन शास्त्रीय भाषा में व्यक्तित्व विकास का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है - कषाय। इसी के कारण आवरण, विकार, अवरोध और अशुभ का संयोग व्यक्तित्व के साथ सदा बना रहता है। ___ व्यक्ति कुछ जानना चाहता है, सही दृष्टिकोण बनाना चाहता है, पर आवरण न सही जानने देता है और न सही देखने देता है । यह ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का कार्य है। व्यक्ति सदैव अच्छा आचरण करना चाहता है, पवित्र रहना चाहता है पर मूर्छा और विकृति पवित्रता को दूषित कर आदमी को मूढ़ बना देती है, यह कार्य मोहनीय कर्म द्वारा सम्पादित होता है। व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्तियों का प्रस्फुटन चाहता है। पर उसके पास सबकुछ होने के बाद भी अन्तरायकर्म द्वारा अवरोध पैदा किया जाता है कि वह शक्ति प्रतिहत हो जाती है। हर व्यक्ति के पास योग्यात्मक और क्रियात्मक दो शक्तियां हैं। योग्यात्मक शक्ति आत्मा का गुण है। क्रियात्मक शक्ति शरीर के योग से निष्पन्न होती है। कर्मशास्त्र में योग्यात्मक क्षमता को लब्धिवीर्य और क्रियात्मक क्षमता को करणवीर्य कहा गया है। जिसमें लब्धिवीर्य नहीं होता है, वह उस शक्ति का कभी विकास कर ही नहीं सकता। लब्धिवीर्य की विद्यमानता में भी करणवीर्य के अभाव में कार्य-निष्पन्न नहीं हो सकता। अन्तराय का पर्दा जब हटता है, तब व्यक्ति अपनी शक्ति का उपयोग करने में सफल होता है । ये घातिकर्म के परिणाम हैं। इनके कारण व्यक्तित्व का विकास सम्भव नहीं होता। जीवन के साथ शुभाशुभ का संयोग अघाति कर्म - नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य के कारण होता है। ये आत्मगुणों को हानि तो नहीं पहुंचा सकते पर देह-संरचना, सम्मान, प्रतिष्ठा आदि में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ___ इन चारों विघ्नों के मिटने पर समग्र व्यक्तित्व का विकास प्रकट होता है, जिसे हम क्षायोपशमिक एवं क्षायिक व्यक्तित्व कह सकते हैं। इसमें शुभलेश्याएं प्रकट होती हैं। विशिष्ट पवित्रता की स्थिति में परमशुक्ल लेश्या तक का जागरण हो जाता है। 1. उत्तराध्ययन 34/21 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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