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________________ लेश्या और मनोविज्ञान समान गुण व जाति वाले समुदाय को कहते हैं। जैन आगमों में भी अभिजाति शब्द का प्रयोग इन छह अभिजातियों के वर्गीकरण की छाया-सी प्रतीत होती है। भगवती सूत्र में लिखा है - "श्रमणोपासक शुक्ल (पवित्र) शुक्लाभिजाति होकर काल के समय मरकर किसी एक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं।" भगवती के चौदहवें शतक में लिखा है कि वाणव्यन्तर देवों से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या भी ज्यादा प्रभा वाली होती है, इसी प्रसंग में कहा गया है कि श्रमण निर्ग्रन्थ शुक्ल एवं शुक्लाभिजात होकर अन्त में सिद्ध, बुद्ध, परिनिवृत्त एवं सर्वदुःखों का अन्त करने वाले होते हैं।' गोशालक द्वारा महावीर को कहे गए कथन में शुक्लाभिजात शब्द का प्रयोग हुआ है। गोशालक ने कहा - आयुष्मान् काश्यप! जो मंखलीपुत्र गोशालक आपका धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात (पवित्र आचरण) होकर काल के समय मरकर किसी देवलोक में उत्पन्न हुआ है। मैं तो कोन्डायिन गोत्रिय उदायी हूँ।' इसी तरह जाति और कर्म के आधार पर निर्णीत बुद्ध की छह अभिजातियों का सिद्धान्त भी लेश्या सिद्धान्त के नजदीक इसलिए लगता है कि जैन-धर्म जातिवाद को अस्वीकार करता है। नीच कुल में जन्मा व्यक्ति भी कर्म के आधार पर उच्च बन सकता है। लेश्या के सन्दर्भ में भी यह कहा जा सकता है कि लेश्या का परिणाम व्यक्तित्व रूपान्तरण का संकेत है। यद्यपि जन्म से लेकर मृत्यु तक एक जीव के एक ही द्रव्य लेश्या रहती है, क्योंकि द्रव्य लेश्या शरीरवर्णनामकर्म की प्रकृति है। औदयिक शरीर का वर्ण है, औदयिक भाव है पर भावनात्मक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति में प्रतिक्षण भावधारा बदलती रहती है। भावलेश्याएं बदलती रहती हैं। यह बदलाव ऊंच-नीच, अच्छे-बुरे भावों की सीमाओं के पार की बात है। द्रव्यत: नारकी में कृष्णलेश्या आदि अशुभ लेश्या होती है पर सम्यक्त्वी जीव के नारकी में भी शुभलेश्या पाई जाती है, क्योंकि भावलेश्या अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती है। द्रव्यलेश्या और भावलेश्या से यह सिद्ध होता है कि नीच कुल में जन्मा व्यक्ति कृष्णाभिजाति का होकर भी कर्म के आधार पर वह शुक्लाभिजाति तक पहुंच सकता है। जैन चिन्तकों ने अभिजातियों की व्याख्या अपने ढंग से की। ऐसा करना उनके लिए स्वाभाविक था। जैन कर्म सिद्धान्त में कर्म की व्याख्या पौद्गलिक परिणमन के आधार पर की गई है । अत: अभिजाति को पौद्गलिक कर्मलेश्या के रूप में स्वीकार करना उनके लिए सहज ही था। परन्तु अभिजाति या लेश्या की जन्म-सम्बद्धता के निराकरण के लिए जैनों ने भावलेश्या को अधिक महत्व दिया। यही कारण है कि जैन साहित्य में द्रव्यलेश्या की अपेक्षा भावलेश्या पर विस्तृत साहित्य उपलब्ध है। अभिजाति का सिद्धान्त सिर्फ मानव जाति तक सीमित रहा जबकि जैनों का लेश्या सिद्धान्त मानवेतर प्राणी जगत तक पहुंचा। उसने सभी प्राणियों के जीवनक्रम का विश्लेषण इस आधार पर किया। अभिजाति और लेश्या की मान्यताएं परस्पर में एक-दूसरे से कितनी प्रभावित थीं, यह कहना तो बहुत कठिन है। डॉ. बाशम के अनुसार आजीवकों का अभिजाति सिद्धान्त एवं 1. भगवती 14/8; · 2. वही, 15/136 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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