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निर्विचारता और सामायिक
जैन परंपरा में दो शब्द प्रचलित हैं-ध्यान और सामायिक | सामायिक भी ध्यान है, किन्तु वह ध्यान से भिन्न भी है । क्योंकि ध्यान में दूसरे से सम्बन्ध होता है ? जैसे ही मैं कहूं कि ध्यान करो, प्रश्न होगा कि किसका ध्यान करें? कैसे करें ? कहां करें ? कौन करे ? ध्याता अलग हो जाता है, ध्येय अलग हो जाता है, ध्यान की पद्धति अलग हो जाती है, ध्यान का साधन अलग हो जाता है । ये सारे कर्ता, कर्म, आधार आदि अलग-अलग खड़े हो जाते हैं । आप पूछेगे कि किसका ध्यान करें ? बताना होगा कि अर्हम् का ध्यान करें या अमुक आकृति का ध्यान करें, अमुक शब्द का ध्यान करें । ध्येय बताना होगा । जब तक ध्येय नहीं बताया जाएगा, आप ध्यान नहीं कर सकेंगे । किन्तु निर्विचारता की स्थिति में ये सारे प्रश्न समाप्त हो जाते हैं । दूसरा समाप्त हो जाता है | दूसरा कोई भी नहीं रहता । वहां ध्याता अलग नहीं रहता | ध्यान अलग नहीं रहता | ध्येय अलग नहीं रहता । वही ध्याता, वही ध्यान, वही ध्येय, वही ध्यान का साधन और वही ध्यान का आधार होता है | सारे कारक एक हो जाते हैं । सारे कारक समाप्त हो जाते हैं । भेद समाप्त हो जाता है और अभेद प्राप्त हो जाता है । आत्मा और सामायिक
निर्विचारता की स्थिति में केवल सामायिक होती है । सामायिक का मतलब है-समय में होना । समय का अर्थ है-आत्मा । आत्मा में होना ही सामायिक है । जहां होने की स्थिति है, वहां बनने की स्थिति समाप्त हो जाती
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