________________
८०.
अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
तब तक सब कुछ ठीक है । किसी के कुछ कहते ही व्यक्ति गुस्से में भर जाता है | बहुत बार ऐसी धमकियां भी दे देता है-मैं घर से भाग जाऊंगा, छत से नीचे गिर जाऊंगा आदि-आदि । दूसरों को डराना-धमकाना उसके स्वभाव का एक अंग बन जाता है । कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बहुत दब्बू और डरपोक होते हैं । घर से बाहर जाने में उन्हें डर लगता है । एक युवक ने कहा-'मेरी बहुत विचित्र स्थिति है । मैं किसी से काम की बात नहीं कर सकता । व्यापार नहीं चला सकता । किसी के सामने आते ही हार्ट धक् धक् करने लग जाता है।' हमें ऐसे सूत्र को खोजना है, जिससे ये दोनों वृत्तियां न हों, केवल समता की वृत्ति हों । न उदंडता और न भय | अभय हो और उसके साथ हो अहिंसा, मैत्री एवं अनुशासन का योग । साम्यवाद
हमारा सारा व्यवहार और आचरण समता से संचालित हो तो उससे बढ़िया कोई प्रणाली नहीं हो सकती । जो लोग कई दशकों से साम्यवाद के विकास में लगे हुए हैं, वे आज कह रहे हैं- साम्यवाद हमारे लिए कोई माडल नहीं है । लोकतंत्र और स्वतन्त्रता पर पूंजीवाद का एकाधिकार नहीं है । ये स्वर साम्यवाद से जुड़े लोगों के हैं । इसका अर्थ है-हमारा आचरण समता से अनुस्यूत नहीं रहा और इसीलिए साम्यवाद सफल नहीं हो सका । जहां समता है वहां विषमता पनप नहीं सकती । जहां विषमता है वहां अवश्य ही समता का अभाव है। अध्यात्म के आचार्यों ने लिखा- हमारे आचरण का कोई आचरण का कोई चरम बिन्दु है तो वह है समता । जिस दिन समता एवं सामायिक का विकास होगा, वह दिन धन्य होगा। राजनैतिक प्रणाली हो या सामाजिक प्रणाली-हम इन विभिन्न प्रणालियों का समता के नियमों के द्वारा संचालन करें तो एक स्वस्थ एवं शान्तिपूर्ण जीवन प्रणाली का विकास हो सकता है | उनमें एक नियम है स्वर चक्र के संतुलन का, समवृत्ति श्वास प्रेक्षा का | इसके द्वारा वृत्तियों में संतुलन स्थापित कर समतामय जीवन का निर्माण किया जा सकता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org