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स्वर-चक्र का संतुलन और सामायिक
को हस्तगत कर लिया है फिर भी जंगल में ठोकरें खा रहे हैं । इसलिए मेरी एक ही सीख है- भाग्यवान् पुत्र को ही जन्म देना ।
भाग्य है तो सब कुछ है । वह नहीं है तो विद्या और पराक्रम ठोकरें खाते हैं।
समता : भाग्य
हम इस घटना को दूसरे संदर्भ में देखें । भाग्योदय के स्थान पर साम्योदय कर दें | समता को उत्पन्न करो । समता है तो सब कुछ है । वह नहीं है तो कुछ भी नहीं है । जीवन की दो धाराएं हैं- लौकिक धारा और अलौकिक धारा | अलौकिक धारा अध्यात्म की धारा है । जिस व्यक्ति ने आध्यात्मिक जीवन जीना शुरू किया है और उसके जीवन में समता नहीं आ पाई है तो मानना चाहिए- उसने जीवन में कुछ भी नहीं पाया है । पराक्रम और विद्वत्ता का कोई मूल्य नहीं है । व्यक्ति कितना ही पराक्रमी और विद्वान् हो किन्तु यदि उसके जीवन में समता का अवतरण नहीं हुआ तो कुछ भी नहीं हुआ। लौकिक भाषा में कहा जा सकता है-व्यक्ति कितना ही पढ़ा लिखा हो, विद्वान्
और पराक्रमी हो, यदि भाग्य उसका साथ नहीं देता है तो सब कुछ हो जाने पर भी वह कुछ कर नहीं पाता ।
संतुलन और समता
__ धार्मिक जीवन का सबसे बड़ा सूत्र है-समता की साधना, सामायिक की आराधना । स्वर-संतुलन के द्वारा हम इस सूत्र को खोज सकते हैं । न बायां स्वर अधिक सक्रिय और न दायां स्वर अधिक सक्रिय । दोनों स्वर संतुलित रहें तो जीवन में समता का अवतरण हो सकेगा । दायां स्वर अधिक सक्रिय होगा तो क्रोध ज्यादा आना शुरू हो जाएगा, उत्तेजना एवं आक्रामक वृत्ति बढ़ेगी । बायां स्वर अधिक सक्रिय होगा तो डर, भय और हीन भावना बढ़ेगी। यह एक प्रकार की विषमता की स्थिति है । समता वहां है, जहां न भय है और न उदंडता । कुल लोग ऐसे होते हैं, जो बहुत उदंड होते हैं, उनके लिए डर नाम का कोई शब्द नहीं होता । जब तक कोई कुछ न करे,
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