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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
की धारा विच्छिन्न हो जाती है । आवश्यक है अपनी परिक्रमा करना ।
अपनी परिक्रमा
महादेव ने अपने दोनों पुत्रों से कहा- 'जाओ, तीन लोक की परिक्रमा कर आओ । जो पहले आएगा, वह पुरस्कृत होगा, विजयी होगा और जो बाद में आएगा, वह पराजित समझा जाएगा ।' दो पुत्र - एक का नाम था गणेश और दूसरे का नाम था कार्त्तिकेय । कार्त्तिकेय को बहुत प्रसन्नता हुई । उसने सोचा- मेरा वाहन है मयूर । वह बहुत ही शक्तिशाली और तीव्रगामी है। मैं ही विजयी होऊंगा । गणेश ने सोचा- मेरा वाहन है चूहा । कैसे परिक्रमा कर पाऊंगा ? मै भारी-भरकम और चूहा छोटा सा । विजयी होने का प्रश्न ही नहीं है । वह निराश हो गया ।
कार्तिकेय अपने वाहन पर बैठा और त्रिलोक की परिक्रमा के लिए चल
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पड़ा ।
गणेश ने सोचा- निराश होने से क्या बनेगा ? चिन्ता नहीं, मुझे चिन्तन करना चाहिए। कोई उपाय प्राप्त हो जाए ।
आचार्य तुलसी ने एक सूत्र दिया - चिन्ता नहीं, चिन्तन करो । जो आदमी चिन्ता में डूब जाता है, वह पहले ही क्षण हार जाता है । उसे विजय की आशा ही छोड़ देनी चाहिए। जहां-जहां चिन्ता घेरती है वहां-वहां पराजय व्यक्ति को व्यथित कर देती है । जहां चिन्ता छूटती है, चिन्तन आता है वहां सफलता चरण चूमने लग जाती है ।
यही अन्तर है पदार्थ में और मूर्च्छा में । जो मूर्च्छा में डूबा, वह पदार्थ में डूबने वाला बन गया । मूर्च्छा के अलग होते ही पदार्थ भी उपयोगी बन जाता है । जो अन्तर हम पदार्थ में और मूर्च्छा में डाल सकते है, वही अन्तर चिन्ता और चिन्तन में डाल सकते है । चिन्ता का बोझ सिर पर न आए । चिन्ता के पानी से भरा यह घड़ा हमारे सिर पर न लदे । यदि वह लद गया तो हमारी गति कमजोर और मन्द बन जाती है । चिन्तन करने से सफलता अपने आप वरण करने आ जाती है ।
गणेश ने चिन्ता छोड़, चिन्तन करना प्रारम्भ किया । समस्या पर एकाग्र
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