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सामायिक और इन्द्रिय संवर
दर्शन का संदर्भ
वेदान्त ने एक सिद्धांत का विकास किया । उसे विवर्त वाद कहा गया । उसके अनुसार केवल चैतन्य ही सत्य है, संसार सारा झूठा है, माया है, प्रपंच है । आदमी भ्रांति में जीता है । कोई आदमी अंधेरे में जाता है। वहां रस्सी पड़ी होती है । वह मान लेता है कि यह सर्प है । सर्प के भय से वह भाग जाता है । रस्सी में सांप का भ्रम हो गया । रस्सी सांप की भांति कभी काट नहीं सकती किन्तु भ्रांति या मिथ्या धारणा के कारण रस्सी में सांप का आरोप कर लिया जाता है । वैसे ही सारा वस्तु जगत् मिथ्या धारणा है । वास्तव में चैतन्य ही यथार्थ है । यह एक दृष्टि है ।
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जैन दर्शन के अनुसार चेतन भी वास्तविक है और अचेतन भी वास्तविक
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है । दोनों वास्तविक हैं । अचेतन भ्रम नहीं है । जैसा स्वतंत्र अस्तित्व चेतन I का है, वैसा ही स्वतंत्र अस्तित्व अचेतन का है। दोनों के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं है । दोनों वास्तविक हैं, यथार्थ है । यह एक दृष्टि है ।
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जैन दर्शन के अनुसार चेतन भी वास्तविक है और अचेतन भी वास्तविक है । अचेतन भ्रम नहीं है । जैसा स्वतंत्र अस्तित्व चेतन का है, वैसा ही स्वतंत्र अस्तित्व अचेतन का है। दोनों के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं है । दोनों वास्तविक हैं, यथार्थ हैं ।
साधना का संदर्भ
दर्शन के क्षेत्र में दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है किन्तु जहां साधना का प्रश्न है वहां वेदान्त का दृष्टिकोण भी यही है कि हम केवल चैतन्य का अनुभव करें, जैन दर्शन का दृष्टिकोण भी यही है कि हम केवल चैतन्य का अनुभव करें । इन्द्रियों पर विजय पाने का सहज-सरल मार्ग है चैतन्य का अनुभव | कायोत्सर्ग चैतन्य के अनुभव की प्रक्रिया है । शरीर के कण-कण में चित्त को ले जाएं और उसमें चैतन्य का अनुभव करें। शरीर प्रेक्षा में भी प्रत्येक अवयव में चैतन्य का अनुभव किया जाता है । जब चैतन्य का अनुभव होता है, अपनी परिक्रमा होती है तब इन्द्रियां अपने आप विजित हो जाती हैं, मूर्च्छा
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