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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
अरुचिकर लगती है अप्रियता के कारण | और प्रिय और अप्रियता के संस्कार धुल जाने पर वस्तु वस्तु रहती है, पदार्थ पदार्थ रहता है और यथार्थ यथार्थ रहता है । क्या यह संभव है कि प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाए ? बहुत संभव है । यदि हम प्रायोगिक जीवन जीएं तो ऐसा संभव है कि पदार्थ है, प्राणी है, किन्तु प्रियता और अप्रियता का संस्कार समाप्त । प्रश्न होता है-क्या आंखों और कानों को बंद रखें ? क्या इन्द्रियों के दरवाजों को दीर्घकाल तक बंद नहीं रखा जा सकता । जीवन की लंबी अवधि में, इस दीर्घकालीन यात्रा में यह कभी संभव नहीं है कि आदमी आंख बंद कर बैठ जाए, कानों के पडदे फाड़ दे । इन्द्रियों के द्वार खुले रहेंगे । पानी आएगा पर गंदगी नहीं आएगी । इन्द्रियों का काम है जानना, संवेदन करना, ज्ञान करना । लोगों ने भ्रान्तिवश यह मान लिया है कि इन्द्रियों का काम है रागद्वेष करना, प्रियता और अप्रियता करना । यह काम इन्द्रियों का नहीं है । आंख का काम मूर्छित होना नहीं है, प्रियता-अप्रियता पैदा करना नहीं है । आंख तो ज्ञान की एक धारा है, चैतन्य की एक धारा है । इसमें कैसी प्रियता और कैसी अप्रियता ! ज्ञान और मूर्छा के योग को हमने एक मान लिया, यह बहुत बड़ी भ्रान्ति हो गई । ज्ञान की धारा भिन्न है, मूर्छा की धारा भिन्न है। राग और द्वेष की धारा ज्ञान-धारा के साथ जुड़ जाती है और हम दोनों को एक मान कर प्रियता और अप्रियता के भ्रम में फंस जाते हैं। __जब यह भ्रान्ति टूटती है, हमें अपने चैतन्य का अनुभव होता है तब इन्द्रिय-संवर सहज घटित हो सकता है । बेचारा हरिण दौड़ रहा है मृगमरीचिका के पीछे । सूरज की किरणें ताल में पड़ती हैं । मृग को लगता है कि वहां पानी लहलहा रहा है । वह पानी पीने दौड़ता है । निकट जाने पर वहां पानी नहीं मिलता | वहां से देखने पर आगे पानी दीखता है । वहां जाता है, पर पानी नहीं मिलता । वहां से देखने पर आगे पानी दीखता है । वहां जाता है, पर पानी नहीं मिलता। बन्धन हैं राग और द्वेष
आदमी ने भी ऐसा ही भ्रम पाल रखा है । वह मानता है कि और अधिक
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