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सामायिक और इन्द्रिय संवर
तटस्थता का अवरोधक
एक लड़की जा रही थी । वह बहुत सुन्दर थी । एक युवक उसका पीछा करने लगा | लड़की ने उसे देख लिया । मुड़ कर वह बोली-'पीछे क्यों आ रहे हो?' वह बोला-'मैं तुमसे प्रेम करता हूं।' लड़की बोली-- 'बहुत अच्छा, किन्तु मेरी बहिन पीछे आ रही है । वह मेरे से अधिक सुन्दर है ।' इतना कहते ही युवक वहीं रुक गया | वह आगे बढ़ गई । पीछे से एक लड़की आई । युवक ने देखा । वह कुरूप और भद्दी थी । युवक ने सोचा-धोखा हो गया । वहां से दौड़ा और पहली लड़की के पास आकर बोला- तुम्हारी बहिन तो बहुत कुरूप है । मैं तुम्हारे साथ ही रहना चाहता हूं । तुमसे मुझे बहुत प्रेम है !' वह बोली-'तुम झूठ बोलते हो । यदि मुझसे प्रेम होता तो तुम कभी पीछे नहीं रहते । तुम्हारा प्रेम मेरे से नहीं है, रूप और सौंदर्य से है । पीछे भद्दी और कुरूप लड़की मिली, इसलिए यहां भाग आए | यदि वह मेरे से अधिक रूपवती होती तो तुम कभी मेरे पास नहीं आते ।'
यह प्रियता और अप्रियता का भाव व्यक्ति को कभी तटस्थ नहीं रहने देता ।
मेरे मित्र को यह बात समझ में आ गई कि जब तक वस्तु-जगत् के प्रति, इन्द्रिय विषयों के प्रति प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त नहीं होता तब तक तटस्थता फलित नहीं होती । वह व्यक्ति मध्यस्थ नहीं हो सकता, सामायिक कभी अवतरित नहीं हो सकती । तटस्थता कैसे ?
पूछा गया- तटस्थता अथवा सामायिक कैसे संभव हो सकती है ? मैंने कहा-- तटस्थता इन्द्रिय-संवर द्वारा फलित होती है । जिस व्यक्ति ने इन्द्रियसंवर साध लिया, वह तटस्थ हो जाता है । सामायिक को उपलब्ध हो जाता है । जब मन से प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है तब पदार्थ पदार्थ मात्र रह जाता है, प्राणी प्राणी मात्र रह जाता है । हम कह देते हैं, अच्छी वस्तु के साथ हमारी प्रियता जुड़ती है और बुरी वस्तु के साथ हमारी अप्रियता जुड़ती है । यह भ्रान्ति है । वस्तु रुचिकर लगती है प्रियता के कारण,
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