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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक पदार्थ के प्रति हमारी तटस्थता नहीं होती है तो क्या हम तटस्थ नहीं हो सकते ?' __मैंने कहा- वस्तु-जगत् के प्रति जो तटस्थ नहीं होता, वह चैतन्य जगत के प्रति कभी तटस्थ नहीं हो सकता । तटस्थता एक स्थान पर खंडित होती है तो वह हर स्थान पर खंडित होती चली जाती है । वह कभी अभंग और अखंड नहीं रह सकती । बांध में एक छेद हो जाता है तो वह छेद बढ़ता चला जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि पूरा बांध टूट जाता है । पानी सारा छितर जाता है। __सबसे पहले तटस्थता वस्तु-जगत् के प्रति होती है । जो व्यक्ति वस्तु जगत् के प्रति तटस्थ हो जाता है, वह प्राणी जगत् के प्रति तटस्थ हो जाता है । एक पिता के दो पुत्र हैं । बड़े पुत्र के मन में शिकायत है कि पिता मेरे छोटे भाई के प्रति पक्षपात करते हैं | मेरे अधिकारों से मुझे वंचित कर रहे हैं । पिता अपने छोटे पुत्र को सारा धन दे देना चाहता है, बड़े पुत्र को अंगूठा दिखा देना चाहता है । ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि वस्तुजगत् के प्रति उसके मन में तटस्थता नहीं है । उसके मन में चैतन्य का मूल्य नहीं है प्राणी का मूल्य नहीं है । उसके मन में मनुष्य का मूल्य नहीं है, पदार्थ का मूल्य है | वह सोचता है जो मुझे प्रिय है, उसको पदार्थ ज्यादा मिले और जो अप्रिय है, उसको पदार्थ कम मिले । यह पदार्थ-जगत् की प्रियता और अप्रियता प्राणी-जगत् में भी प्रियता और अप्रिया के रूप में उतर आती है । सबसे पहले हमारी प्रियता और अप्रियता इन्द्रियों के साथ जुड़ती है । पांच इन्द्रियां हैं । हम प्रिय शब्द सुनना चाहते हैं, अप्रिय शब्द सुनना नहीं चाहते । प्रिय शब्दों के प्रति अनुराग होता है । अप्रिय शब्द सुनते ही एड़ी से चोटी तक आग लग जाती है । गुलाब का फूल, रात की रानी जब महकती है तब नाक को बहुत अच्छा लगता है। जहां प्रियता और अप्रियता का भाव है वहां तटस्थता कैसे हो सकती है ? जब शब्द के प्रति रूप, रस और स्पर्श के प्रति हमारी प्रियता और अप्रियता है तब तटस्थता संभव नहीं हो सकती । जो व्यक्ति तटस्थ होना चाहे, उसे सबसे पहले प्रियता और अप्रियता के भाव से छुटकारा पाना चाहिए।
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