________________
सामायिक और इन्द्रिय संवर
६५
स्वाद मिले, अधिक प्रियता का भाव जागे, और अधिक तृप्ति मिले । इस तृप्ति की आकांक्षा से हर आदमी दौड़ रहा है उस हिरण की भांति, जो सूरज की रश्मियों की प्रवंचना में चक्कर लगाता है, पर पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती । आदमी को कोई तृप्ति नहीं मिलती, और तृप्ति नहीं मिलती तो और चक्कर लगाने की स्थिति आ जाती है । हर आदमी दोनों बंधनों से बंधा हुआ है । एक है राग का बंधन, दूसरा है द्वेष का बंधन । इन दो बंधनों से कोई मुक्त नहीं है । सब इन दो बंधनों से बंधे हुए हैं । जयाचार्य ने प्रभु की स्तुति में कहा-'आपने सग और द्वेष-इन दोनों बंधनों को समझा है, जाना है और उन्हें तोड़ा है । जैसे ही ये बंधन टूटे, कैवल्य मिल गया । आप केवली हो गए।'
केवलज्ञान, अनावृत ज्ञान मिलने में कोई देरी नहीं होती, अतीन्द्रिय ज्ञान मिलने में विलंब नहीं होता, यदि यह प्रियता और अप्रियता का बंधन टूट जाए, जीवन में सामायिक घटित हो जाए । इन दोनों बंधनों ने एक दीवार खींच रखी है । हमारा चैतन्य जागता नहीं । चैतन्य तब जाग सकता है जब आकांक्षा समाप्त हो जाए। जैसे-जैसे आकांक्षा समाप्त होती है वैसे-वैसे चैतन्य का विकास होता चला जाता है । संभव : असंभव
रैदास बहुत बड़े संत हुए हैं । वे जाति से चमार थे, किन्तु अपनी तपस्या से महायोगी बन गए । एक दिन एक महात्मा पहुंचे, प्रणाम कर बोले-'महायोगिन् ! एक तुच्छ भेंट मैं आपको देना चाहता हूं । रैदास ने पूछा-क्या है भाई ? यह पारसमणि है । लोहे को सोना बनाती है ।'
'मेरे तो कोई काम का नहीं है भाई !'
'काम का नहीं है ? यह कैसे ? आप तो जूता गांठ रहे हैं रोटी के लिए । पारसमणि से आपकी समस्या समाहित हो जाएगी । फिर आपके पास धन ही धन रहेगा, आजीविका के लिए जूते गांठने की आवश्यकता नहीं होगी।'
पारसमणि का नाम सुनते ही आदमी के मुंह से लार टपकने लग जाती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org