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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
जो इस सचाई को स्वीकार करे कि मेरे में कोई कमजोरी है, दुर्बलता है । कभी वह शाब्दिक रूप से स्वीकार कर भी लेता है तो अन्तरात्मा साक्षी नहीं देती कि वह वैसा है । अन्तर में वही तर्क चलता है, मेरा कोई दोष नहीं, वातावरण के कारण मुझे वैसा करना पड़ा । विवश होकर वैसा करना पड़ा। 'मैं कमजोर हूं' यह स्वीकार करने के लिए अन्तर आत्मा कभी तैयार नहीं होती। तटस्थ कहां हो ?
इस स्थिति में मेरे मित्र का कहना अस्वाभाविक नहीं था कि वह तटस्थ नहीं है, यह मिथ्या आरोप है । व्यवहार के धरातल पर यह बात सही है। मैंने व्यवहार से हटकर अन्तर जगत् के दरवाजे को खोल कर चर्चा को आगे बढ़ाया । हर व्यक्ति इस संदर्भ में अपने आपको देखे, आत्मालोचन करे | तब मैंने कहा- मित्र ! तुम भोजन करते हो ? उसने कहा- जरूर करता हूं। भोजन के बिना तो जीवन कैसे चलेगा? कौन प्राणधारी भोजन नहीं करता ? जीने की अनिवार्य शर्त है भोजन ।
'भोजन करते हो तो स्वाद भी लेते हो ?' 'हां, स्वाद जरूर लेता हूं।' 'कुछ अच्छा भी लगता है, कुछ बुरा भी लगता है ?'
'हां, लगता है । मनुष्य हूं, पशु नहीं हूं । पशु भी चुनाव करता है | वह हर प्रकार की घास नहीं खाता । चुनाव करता है । मैं भी चुनाव करता हूं। सब कुछ नहीं खाता | स्वादिष्ट भोजन खाता हूं । स्वाद कैसे नहीं लूंगा | जीभ मिली है । स्वाद के ज्ञान-तंतु मिले हैं तो अच्छा भी लगेगा, बुरा भी लगेगा | अच्छे पदार्थ खाता हूं, बुरे को छोड़ देता हूं। जब अच्छा भोजन सामने आता है तब मन आनन्द से भर जाता है । बड़ी तृप्ति मिलती है । प्रियता का भाव जाग जाता है । जब अनिष्ट भोजन सामने आता है तब नाक-भौं सिकुड़ जाते हैं । बुरा लगता है, क्रोध आ जाता है ।'
मैंने कहा-मित्र ! तुम तटस्थ कहां रहे ? तुम कहते हो-तटस्थ हूं। यह सही नहीं है । एक के साथ प्रियता का भाव रखते हो, दूसरे के साथ अप्रियता
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