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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
आप मेरी बात पर ध्यान दें । मेरी वस्तु मुझे लौटा दें । भूल के लिए प्रायश्चित्त
करें ।'
स्वर्णकार द्वारा इतना कहने पर भी मुनि का मौन भंग नहीं हुआ । स्वर्णकार ने सोचा, श्रमण का मन ललचा गया है। ये दंड के बिना नहीं मानेंगे । उसने रास्ता बन्द कर दिया । वह तत्काल गीला चर्मपट्ट लाया । मुनि का सिर उससे कसकर बांध दिया । वे भूमि पर लुढ़क गए । सूर्य के ताप से चर्मपट्ट और साथ-साथ मुनि का सिर सूखने लगा ।
मुनि ने सोचा- 'इसमें स्वर्णकार का क्या दोष है ? वह बेचारा भय से आतंकित है । मैं भी मौन भंग कर क्या करता ? मेरे मौन भंग का अर्थ होता - क्रौंच - युगल की हत्या । यह चक्रव्यूह किसी की बलि लिये बिना भग्न होने वाला नहीं है । दूसरों के प्राणों की बलि देने का मुझे क्या अधिकार है ? मैं अपने प्राणों की बलि दे सकता हूं ।'
वे अपने प्राणों की बलि देने को प्रस्तुत हो गए । उनका चित्त ध्यान के प्रकोष्ठ में पहुंच गया । उनका मन सरिता में नौका की भांति तैरने लगा । कष्ट शरीर को होता है । उसकी अनुभूति मन को होती है । दोनों घुले-मिले रहते हैं, तब कष्ट का संवेदन तीव्र होता है । जब मन शरीर की सरिता के ऊपर तैरने लगता है तब उसका संवेदन क्षीण हो जाता है । यह है सहिष्णुता - समता के विवेक से पल्लवित, पुष्पित और फलित ।
द्वन्द्व का होना जागतिक नियम है। इसे कोई बदल नहीं सकता । द्वन्द्व की अनुभूति को बदला जा सकता है । यह परिवर्तन द्वन्द्वातीत चेतना की अनुभूति होने पर ही होता है । द्वन्द्व की अनुभूति का मूल राग और द्वेष का द्वन्द्व है | इस द्वन्द्व का अन्त होने पर द्वन्द्वातीत चेतना जागृत होती है । समता का आदि-बिन्दु द्वन्द्वातीत चेतना की जागृति का आदि-बिन्दु है । समता का चरम-बिन्दु द्वन्द्वातीत चेतना की पूर्ण जागृति है । इस अवस्था में समता और वीतरागता एक हो जाती है । साधन साध्य में विलीन हो जाता है । वस्तुजगत् में द्वैत रहता है किन्तु चेतना के तल पर द्वन्द्व के प्रतिबिम्ब समाप्त हो जाते हैं । विषमता-विहीन समता अपने स्वरूप को खो देती है । न विषमता रहती है और न समता, कोरी चेतना शेष रह जाती है ।
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