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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
'तो क्या भगवान् यह कहते हैं कि उसने अन्धकूप में भी भैंसों को मारा
'हां, मेरा आशय यही है ।'
'भंते! यह कैसे सम्भव है ।'
'क्या उस अन्धकूप में गीली मिट्टी नहीं है ?'
'वह है, भंते !'
'उस मिट्टी का भैंसा नहीं बनाया जा सकता ?"
'भंते ! बनाया जा सकता है ।'
'इसलिए मैं कहता हूं कि कालसौकरिक दिन-भर भैंसों को मारता रहा है ।'
सम्राट इस सत्य को समझ गया कि दण्ड-बल से हिंसा नहीं छुड़ाई जा सकती । वह हृदय परिवर्तन से ही छूटती है। सम्राट् ने अन्धकूप के पास । जाकर मरे हुए भैंसों को देखा और देखा कि कालसौकरिक के क्रूर हाथ अब भी उन्हें मारने में लगे हुए हैं । सम्राट् ने उसे मुक्त कर दिया ।
कुछ वर्षों बाद कालसौकरिक मर गया। यह दुनिया बहुत विचित्र है । इसमें कोई भी प्राणी अमर नहीं होता । एक दिन मारने वाला भी मर जाता है । लोगों ने सुना कि कालसौकरिक मर गया । परिवार के लोग आए और उसका दाह संस्कार कर दिया ।
सुलस कालसौकरिक का पुत्र था। परिवार के लोगों ने उससे पिता का पद संभालने का अनुरोध किया। सुलस ने उसे ठुकरा दिया । 'मैं कसाई का धन्धा नहीं कर सकता' - उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी भावना प्रकट कर दी।
परिवार के लोग बड़े असमंजस में पड़ गए। सारा काम ठप्प हो गया । उन्होंने फिर अनुरोध किया । सुलस ने विनम्र शब्दों में कहा - 'मुझे जैसे मेरे प्राण प्रिय हैं, वैसे ही दूसरों को अपने प्राण प्रिय हैं । फिर मैं अपने प्राणों की रक्षा के लिए दूसरों के प्राण कैसे लूट सकता हूं ?'
स्वजन-वर्ग ने प्राणी-हिंसा में होने वाले पाप के विभाजन का आश्वासन दिया । उन्होंने एक भैंसे को मारकर कार्य प्रारम्भ करने का अनुरोध किया । सुलस ने अपने पिता के कुठार को हाथ में उठाया । स्वजन वर्ग हर्ष से झूम
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