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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
के बिन्दु पर महावीर ने अद्वैत का प्रतिपादन किया । विश्व में केवल अस्तित्व की क्रिया होती तो यह जगत् होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता । पर उसमें अनेक क्रियाएं और पृष्ठभूमि में रहे हुए अनेक गुण हैं । एक तत्त्व में
चैतन्यगुण और उसकी क्रिया मिलती है । दूसरे तत्त्व में वह गुण और उसकी क्रिया नहीं मिलती । गुण और क्रिया की विलक्षणता के बिन्दु पर महावीर ने द्वैत का प्रतिपादन किया । महावीर न द्वैतवादी हैं और न अद्वैतवादी । वे द्वैतवादी भी हैं और अद्वैतवादी भी हैं । उनके दर्शन में विश्व का मूल एक भी है और अनेक भी हैं । अस्तित्व जैसे व्यापक गुण की दृष्टि से देखें तो एकता मौलिक है । चैतन्य जैसे विलक्षण गुण की दृष्टि से देखें तो अनेकता मौलिक है । निष्कर्ष की भाषा में कहें तो एकता भी मौलिक है और अनेकता भी मौलिक है।
महावीर के दर्शन में अनन्त परमाणु हैं और अनन्त आत्माएं । प्रत्येक परमाणु और प्रत्येक आत्मा बिम्ब है। हर बिम्ब का अपना-अपना प्रतिबिम्ब है | गुण का स्थायीभाव बिम्ब और उसकी गतिशीलता प्रतिबिम्ब है । . महावीर ने इस दर्शन की भूमि में साधना का बीज बोया । अचेतन के सामने साधना का कोई प्रश्न नहीं है | उसका होना और गतिशील होना-दोनों प्राकृतिक नियमों से होते हैं । ज्ञानपूर्वक कुछ नहीं होता । चेतन का होना प्राकृतिक नियम से जुड़ा हुआ है किन्तु उसकी गतिशीलता प्राकृतिक नियम से संचालित नहीं होती । वह ज्ञानपूर्वक बदलता है-जो होना चाहता है, उस दिशा में प्रयाण करता हैं । यही है उसकी साधना । मनुष्य का ज्ञान विकसित होता है इसलिए वह विकास के चरम-बिन्दु पर पहुंचना चाहता है | उसके सामने चेतना की दो भूमिकाएं हैं-एक द्वन्द्व की और दूसरी द्वन्द्वातीत की । जीवन और मृत्यु, सुख और दुःख, मान और अपमान, हर्ष और विषाद जैसे असंख्य द्वन्द्व हैं । ये मन पर आघात करते रहते हैं। उसमें मन का संतुलन बिगड़ जाता है । वह विषम हो जाता है ।
द्वन्द्व के आघात से बचने के लिए महावीर ने समता की साधना प्रस्तुत की । उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म का नाम है-समता धर्म, सामायिक धर्म | इसके दो अर्थ हैं
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