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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
होता । असीम और अनन्त कोई नहीं होता हर व्यक्ति के साथ सीमा जुड़ी हुई है । जो अपनी सीमा को नहीं जानता, वह प्रगति नहीं कर सकता | सीमाबोध अत्यन्त आवश्यक है । हमारी शक्ति की सीमा, हमारे आनन्द की सीमा, हमारे सुख की सीमा, सब कुछ सीमित है। इस सीमा-बोध की विस्मृति के कारण प्रगति का यह रथ उल्टा चलने लग गया। एक आदमी को बुद्धि प्राप्त है । वह सोचता है-मुझे बुद्धि प्राप्त है तो मैं जितना चाहूं उतना धन इकट्ठा कर लूं । व्यावसायिक बुद्धि से वह धनकुबेर बन सकता है । यदि वह इस सीमा को नहीं जानता कि एक आदमी ज्यादा धन इकट्ठा करता है तो दूसरों को उसका कितना कटु परिणाम भोगना पड़ता है, तो उसका धनकुबेर होना खतरे में पड़ जाता है । इस सीमा-बोध के अतिक्रमण का अर्थ होता है- क्रांति, युद्ध, संघर्ष और लड़ाइयां । यदि सभी लोग अपनी सीमा में होते तो आज प्रगति का चक्र बहुत तेजी से घूमने लग जाता | जब प्रगति दूसरों के लिए प्रतिगति बन जाती है, पिछड़ेपन का कारण बन जाती है तब कठिनाइयां होती हैं । कुछ राष्ट्रों को भौगोलिकता के कारण प्राकृतिक सम्पदा की प्रचुरता प्राप्त है । उन्हें प्रगति करने की अनेक सुविधाएं प्राप्त हैं । बुद्धिमान् और व्यावसायिक बुद्धि-कौशल से सम्पन्न लोगों को वैभव प्राप्त करने की सुविधा प्राप्त है । एक आदमी एक दिन में दस लाख रुपये कमा लेता है। एक-एक जूट मिल एक-एक दिन में लाखों रुपये कमा लेती है । कितना बड़ा उद्योग है । कमाई की थाह ही नहीं है । हिन्दुस्तान विकासशील देशों में एक है । किन्तु जो देश पूर्णरूपेण विकसित है, वहां धन मानों ऊपर से बरस रहा है | वहां एक दिन में न जाने क्या से क्या हो जाता है । इतना होने पर भी इसका परिणाम क्या आ रहा है ? अनुभव यही बताता है कि इसका परिणाम है-संघर्ष, लड़ाई और क्रांति ।
आज सारा संसार एक प्रकार की क्रांति के कगार पर खड़ा है । किसलिए? इसीलिए कि बुद्धि का उपयोग सीमा से अतिक्रांत होकर हो रहा है | प्रश्न होता है-उसकी सीमा क्या है ? सीमा यह होनी चाहिए कि बुद्धि शक्ति का उपयोग अपने सुख के लिए अवश्य हो, पर उससे दूसरों के सुख में कोई बाधा नहीं पहुंचनी चाहिए। जहां बुद्धि सीमा को पार कर आगे काम
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